Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
भी वंदनीय और पूजनीय है, इसलिए इसका जो पति (संघपति) हो, वह तो लोकोत्तर स्थिति वाला ही होता है । '
( पृ० १७१) ( अरिहंत संघ को पूजते हैं, तब तो संघपति भी अरिहंत के लिये विशेष रूप से पूजनीय है अर्थात् अरिहन्त से भी उत्कृष्ट स्थिति वाला है, तब वर्तमान में निकलने वाले संघों के संघपतियों को आचार्य, सूरिवर्य आदि भी उठ बैठकर नमस्कार कर पूजा करे इसमें तो आश्चर्य ही क्या? स्थानकवासियों! यह देवदुर्लभ अवसर तुम्हें तुम्हारे लक्ष्मीनन्दनों के भाग्य में ही नहीं है, जरा मूर्ति पूजक समाज
माकुभाई आदि संघपतियों को तो देखो ? वे इस पंचमकाल में भी अरिहंतों के पूज्य बन गये ? क्या तुम्हें ऐसा सस्ता सौदा नहीं चाहिये ? ) १६. " हे गिरिराज ! तारी यात्रा नो लाभ लेवा माटे चालता संघ रथ, घोड़ा, ऊँट, वगेरे ना पगनी रज जेओना शरीरे लागे तेमना निविड़ पापो जरूर नाश पामे छे । "
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( आचार्य विजयपद्म सूरिजी जैन सत्य प्रकाश वर्ष ३ अंक १२) ( और इनके पैरों में आकर मरने वाले छोटे जीव तो उसी वक्त मुक्ति पा जाते होंगे ? )
" संभलाय छे के हाल पण ते स्थले ( शत्रुजंय पर ) शक्रेन्द्र घणीवार आवे छे।"
(ले० उक्त जैन सत्य प्रकाश वर्ष ३ अंक ११) संभलाय क्या, सूरिजी खुद जाकर वहाँ आसन लगाकर बैठ
* और महा कवि ऋषभदास जी के कुमारपाल राजा ना रासनुं रहस्य में लिखा कि तीर्थंकर सिद्ध को नमस्कार करते हैं ऐसे सिद्ध भगवान् को भी जो पुरुष संघवी पद प्राप्त करके तीर्थ यात्रा का लाभ लेता है " तेना गुण हमेशा बहुज गमे छे” (पृ० २६६) कोरी गप्प? सिद्ध भगवान् को और 'गमे छे' वाह ?
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