Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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मूर्ति पूजा के विरुद्ध प्रमाण संग्रह
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पृच्छा कर समाधान किया । इस स्थिति पर से यह स्पष्ट हो जाता है कि चतुर्थकाल में मूर्ति पूजा में धर्म मानने वाला जैन समाज था ही नहीं, इतना ही नहीं, अजैन समुदाय में भी मूर्ति पूजा में धर्म मानने की रीति नहीं थी, अन्यथा उसका भी किसी न किसी रूप में उल्लेख होता, सूत्रों के अभ्यास से इस बात का तो पता लगता है कि उस समय लोगों में सांसारिक भावना को लेकर मूर्ति पूजा प्रचलित थी, वे भूत, नाग, यक्ष आदि की मूर्तियें पूजते थे, कोई धन के लिए, कोई पुत्रकलत्रादि के लिए, कोई शारीरिक सुख या सौभाग्य के लिए अथवा रूढ़ि वश इस प्रकार की पूजा होती थी किन्तु धर्म-आत्मकल्याण के लिए भी कोई मूर्ति पूजा करता हो, ऐसा कहीं भी उल्लेख नहीं है। इसी से स्पष्ट हो जाता है कि मूर्ति पूजा में धर्म मानने की पद्धति पंचमकाल (भगवान् केवली के पश्चात् ) की ही है और इसी से सर्वज्ञ काल के सिद्धांतों में इसका नाम मात्र भी उल्लेख नहीं है ।
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यदि मंडन नहीं होते हुए भी खंडन नहीं मिलने मात्र से ही किसी रीति को स्वीकार्य समझा जाय तो वैसे जैन समाज में ही कई मतभेद थोड़े ही समय से ( भगवान् के बाद) चल रहे हैं, कितने ही प्रकार की नूतन मान्यतायें हैं, जिसका स्पष्ट खंडन सूत्रों में कहीं भी नहीं है, तो फिर वे भी वीर सम्मत मानी जायेंगी? नहीं। फिर भी हम सुन्दर समाधान के लिए मूर्ति पूजा के खंडन में कुछ प्रमाण निम्न तीन विभाग से देते हैं
१. जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ।
२. मूर्ति-पूजक संप्रदाय के ग्रन्थों से मूर्ति पूजा का खंडन । ३. अजैन विद्वानों के अभिप्राय ।
इन तीनों विषयों पर पृथक्-पृथक् सप्रमाण विवेचन पाठकों के संमुख रखते हैं।
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