Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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२६४ क्या टीका आदि भी मूल की तरह माननीय है? 冷空空***********************************多多多多 शकीए। हुं आपणी समाजना धुरंधरो ने नम्रता पूर्वक विनती करुं छु के तेओ मने ते विषेनुं एक पण प्रमाण वा प्राचीन विधान-विधि वाक्य बतावशे तो हुं तेओनो घणोज ऋणी थइश।"
(जैन साहित्य मां विकार थवाथी थयेली हानी पृ० १२७) पाठक समझ गये होंगे कि एक मूर्ति पूजक विद्वान् के उक्त वाक्य अक्षरशः सत्य होकर सुन्दर मित्र के प्रयत्न को मिथ्या सिद्ध करने में पूर्ण पर्याप्त हैं। स्पष्ट सिद्ध हुआ कि बत्तीस सूत्रों के पाठ से मूर्ति पूजा का विधान बताने की प्रतिज्ञा करने वाले पूर्ण रूप से प्रतिज्ञा भंजक एवं मिथ्या पक्ष के पोषक प्रमाणित हुए।
(३७) क्या टीका आदि भी मूल की
तरह माननीय है? सुन्दर मित्र दूसरे प्रकरण पृ० २३ में कल्पना तरङ्ग में बहते हुए लिखते हैं जिसका भाव यह है कि टीका मानने में पहले मतभेद था ही नहीं, न किसी ने टीका आदि के विरुद्ध एक शब्द भी उच्चारण किया, तथा टीका भी मूल आगम की तरह मान्य है, आदि इस विषय में सर्व प्रथम यही कहना है कि सुन्दर मित्र ने उक्त बातें केवल साधुमार्गियों से विरोध बताने के लिये ही लिखी हैं, अन्यथा इतिहास प्रेमी और इतिहासवेत्ता कहे जाने वाले सुन्दर बन्धु को क्या यह मालूम नहीं है कि श्री अभयदेवाचार्य जिन्होंने नवांगीवृत्ति बनाई, उनके जीवन काल में ही इस वृत्ति का विरोध हुआ था? यदि सुन्दर मित्र के इतिहास ज्ञान में यह बात नहीं आई हो तो मैं सुन्दर समाज के मान्य प्रमाण को ही यहाँ दे देता हूँ।
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