Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
आणा नहीं आगम तणी चैत्यवासी हो? नचाव्या नाच । इन्द्रिय पोषण कारणे, नहीं करे हो? गाडरिया जांच॥२३॥
(पृ० ६३) सुन्दर मित्र! जिस अंजनशलाका प्रतिष्ठा को आप शास्त्र विरुद्ध एवं भ्रष्टाचारियों का कार्य बता रहे हैं, क्या ऐसे (प्रतिष्ठा, मूर्ति पूजादि के) काम वे महान् चारित्रवान् गणधर महाराज आदि कर सकते हैं? कहिये! आप उन्हें क्या मानेंगे? यदि मूर्ति पूजा के इतिहास के उल्लेखानुसार आप उन्हें मूर्ति पूजक और प्रतिष्ठा करने वाले मानेंगे, तो वे आपके मेझरनामे के अनुसार आज्ञा विरोधक एवं भ्रष्टाचारी ठहरेंगे और उन महात्माओं को भ्रष्टाचारी कहने वाला तो भ्रष्टाचारी ही हो सकता है। बस सिद्ध हुआ कि आप अपने ही लेख से झूठे हैं तथा पक्षपात के नशे में मस्त हैं, साथ ही यह भी प्रमाणित हो चुका कि मूर्ति पूजक साधुओं की उक्त क्रियायें तथा उपदेश जैनधर्म-श्रमणधर्म से सर्वथा विरुद्ध है, बल्कि यह कहना भी अधिक उपयोगी होता कि जो कार्य चैत्यवासी करते थे वे प्रायः आजकल आपके मूर्ति पूजक महात्मा लोग करने लग गये हैं, अतएव ये भी उसी श्रेणी के हैं, मैं ही नहीं आप खुद भी तो वर्तमान मूर्ति पूजक साधुओं को चैत्यवासी जैसे मानते हैं? क्या भूल गये? देखिये आपने मेझरनामे की २६ वीं ढाल की २२-२३ गाथा में इस बात को स्वीकार किया है कि पूजा भणाना, प्रतिष्ठादि करना यह चैत्यवासियों का कार्य है और इसके पूर्व ११ वीं ढाल में लिखते हैं कि -
“आवेज रस्ते चालतां यतियों हो? थया फजीत। सत्य विजय बधुं छोडी युं तो पण हो?हवे आ चाली रीत ॥८॥
(पृ० ३६)
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