Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
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"दय लोगस्स जाणित्ता पादीणं पडीणं दाहीणं उदीणं आइसवे विभये किट्टे वेदवी ॥ २ ॥ से उद्विएस वा, अणुट्टिएस वा, सुस्सूसमाणेसु वा, पवेदए, संति, विरंति, उवसयं, णिव्वाणंसोयं, अज्जवियं, मद्दवियं लाघवियं अणइवत्तिय ॥३॥
" सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसि भूयाणं, सव्वेसि जीवाणं, सव्वेसि सत्ताणं अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्रवेज्जा || 811
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अणुवीइ धम्ममाइक्रवमाणे णो अत्ताणं आसाइज्जा जो पर आसाइज्जा णो अन्नाणं पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताई आसादेज्जा से आणासादर आणासादमाणे वज्झमाणाणं पाणाणं भूयाणं जीवाण सत्ताणं जहा से दीवे असंदीणे एवं से भवति सरणं महामुणी ॥५॥”
अर्थात् - साधु लोग में रहे हुए जीवों को जानकर और गृहस्थ तथा साधुधर्म का विभाग कर धर्म समझावे । साधु को तथा गृहस्थ को दया, विरति, उपशम, निर्वाण, पवित्रता, आर्जव, मार्दव, लाघव आदि समझा कर धर्म कहे तथा सर्व प्राण भूत जीव सत्व का विचार कर उपकार बुद्धि से धर्म कहे। पूर्वापर के विचार युक्त धर्म कहते हुए मुनि स्व तथा पर आत्मा का हित करके सबके लिए द्वीप के समान आधार एवं शरणभूत होते हैं।
( आचारांग श्रु० १. अ० ६ )
सेभिक्खु मान्ने अन्नयरं दिसं अणुदिसं वा पडिवन्ने धम्मं आइक्वे विभए किट्टे उवट्ठिएसु वा अणुवट्ठिएसु वा, सुस्सूसमाणेसु पवेदिए सतिविरंति उवसमं निव्वाणं
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