Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
२१७ ***********学学***************************** प्रभु जगद्वंद्य त्रैलोक्याधिपति थे, उनको मनुष्य ही नहीं देवेन्द्र तक श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे। श्री गौतम स्वामी जैसे भी प्रभु के प्रति रागभाव रखते थे तो सामान्य जनता रखे, उसमें शंका ही क्या हो सकती है? बस इसी रागभाव के अतिरेक से ही स्मारक, हड्डी पूजा, या मूर्ति निर्माण हो जाय तो यह बिलकुल स्वाभाविक बात है और यह आज ही क्यों लाखों करोंड़ों वर्षों की हो तो भी हमें कोई हर्ज नहीं। क्योंकि चित्रकला भी अनादि है, इससे चित्रों या मूर्तियों का भी अनादित्व हो सकता है तथा चित्र प्रायः उसी का लिया जाता है कि जो चित्र लेने वाले या लिखाने वाले को प्रिय हो, तदनुसार तीर्थंकर के प्रति अत्यधिक राग वाले होकर लोगों ने यदि रागभाव के कारण उनकी मूर्तियें बन वाली हो तो उससे धर्म का क्या सम्बन्ध? चाहे वह कितनी ही प्राचीन क्यों न हो। हमारा अभिप्राय तो केवल यही है कि मूर्ति पूजा में धर्म मानने की श्रद्धा जैन धर्म की तथा आत्म-पुरुषों की नहीं है। अतएव मूर्तियों के प्राचीन होने से उसकी पूजा उसमें आत्म-कल्याण मानने की श्रद्धा पुरानी नहीं है। हाँ स्मारक रखने की रीति पुरानी अवश्य है और उसी के चलते समय के फेर से ये मूर्तियें बनी।।
यदि मूर्तियों के प्राचीन होने मात्र से मूर्ति पूजा में धर्म होना माना जाय तो जिनमूर्तियों से भी प्राचीन मूर्तियें यक्षों की सुनी जाती है, मथुरा में कामदेव की भी एक मूर्ति पुरानी निकली है, तो क्या इनके भी पूजने में धर्म है? कुछ भी नहीं। बस इसी प्रकार यह भी समझो कि मूर्तियें प्राचीन होने मात्र से इनकी पूजा करने में धर्म नहीं हो सकता। मूर्ति पूजा पुद्गलासक्ति को बढ़ाकर संसारमार्ग की ओर खींचने वाली है। जिसका उदाहरण आज तक का विकार स्पष्ट बता रहा है, आजतक के स्मारक के इतिहास से यह स्पष्ट हो गया है कि मनुष्यों ने इनको पुद्गलासक्ति के
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