Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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२३२ मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध 学学会李李李李李李李家学会李李李李李容承辛辛学子求学学会学学实至完全辛本关东军容产
यदि विचार पूर्वक देखा जाय तो मूर्ति पूजा में धर्म मानना आगम आशय से विरुद्ध और आत्म-कल्याण के लिए बाधक है।
कितने ही लोग मन्दिर और मूर्तियों के कला कौशल का वर्णन कर, आदर्श एवं उच्च कला बताकर, इनकी पूजा करना ठहराते हैं किन्तु मुमुक्षुओं को ध्यान में रखना चाहिए कि यह सब प्रवृत्ति (कला की उच्चता) सांसारिक है। जैसे विद्याचार्य और कलाचार्य को आगमों में सांसारिक पक्ष के बताये और सांसारिक रीति से ही उनको सेवा करने का उल्लेख है, किन्तु धर्माचार्य को धर्मपक्ष में गिनकर उनकी सेवा धर्मियों (महात्माओं) की सेवा के समान बताई है, वैसे ही कला की उच्चता भी धार्मिक उच्चता से (आत्म-कल्याण रूप धर्म से) भिन्न है।
स्वयं मू० पू० इतिहासज्ञ श्रीमान् जिनविजयजी "प्राचीन जैन लेख संग्रह" भाग १ के उपोद्घात पृ० ३८ में लिखते हैं कि -
“मूर्ति पूजा मानवीके न मानवी ए एक जुदी बाबत छे अने तेनो सम्बन्ध तत्त्वज्ञान नी साथे विशेष छे, परन्तु अमुक समय पहला जैनोमां मूर्ति पूजा हती के न हती, ए ऐतिहासिक प्रश्नुं तो निराकरण आ लेख थी एकदम थई जाय छ।"....
(जैन सत्य प्रकाश वर्ष १ अ० १० पृ० ३३३ जिन मन्दिर शीर्षक लेख से)
तथा पं० बेचरदासजी "जैन साहित्य मां विकार थवाथी थयेली हानि" पृ० ११७ में लिखते हैं कि -
"आपणा पूर्वजोए चैत्यो ने पूजवा माटे नहीं, पण तेने मरनार महापुरुषों नी यादगिरी राखवा माटे बनाव्यां हतां, परन्तु पाछल थी तेनी पूजा शरु थई हती अने ते आज सुधी पण चाले छे।"
पं० चन्द्रधर शर्मा लिखते हैं कि -
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