Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
२३०
मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध
**********
का पालन कर आत्मोत्थान करने का अनेक स्थानों पर स्पष्ट उल्लेख है, व इसी अनुसार साधुमार्गी समाज के सुसाधु अपनी श्रद्धा प्ररूपणा और यथाशक्ति स्पर्शना रखते हैं, तब इन्हें अर्वाचीन कहकर इनकी उपेक्षा या निन्दा करना, समझदारों के लिए कहाँ तक उचित है?
श्रमण संघ के एकदम विकृत और पतनोन्मुखी हो जाने से, और उसका कारण मूर्तिवाद रूपी विष के होने से श्रीमान् धर्म सुधारक लोकाशाह को क्रान्ति मचाकर क्रियोद्धार करना पड़ा। जो उस वक्त जनता को पूर्वोक्त उदाहरणों से नया होना पाया जाय तो कोई आश्चर्य नहीं। पर समझदारों को तो सोचना चाहिये कि इसमें नूतन पन क्या है ? कुछ भी नहीं, वहीं वीर भगवान् के मुख्य सिद्धान्त । फिर नये पुरानेपनका गँवारू प्रश्न ही क्यों उठाया जाय? वैसे तो वर्तमान मूर्ति पूजक श्रमण संघ भी प्रायः विक्रमीय सत्तरहवीं शताब्दी के (लोकाशाह के बाद) वृद्ध काल में सत्यविजयगणी द्वारा चैत्यवास का विशेष भ्रष्टाचार से संस्कारित किया हुआ नूतन ही हैं। आपकी इस युक्ति पर से तो यह भी कोटि का ही होना चाहिए।
'
अतएव केवल प्राचीन होने से ही कोई उपादेय नहीं हो सकता ।
४
आगमों के सामने इसका कोई मूल्य नहीं
समस्त जैन समाज शास्त्रों को प्रमाण मानता है और उनमें बताई विधि के अनुसार अपना आचरण बनाने की भावना रखता है तथा जो शास्त्र निर्दिष्ट नियमों का भली प्रकार से पालन करे उसे आदर की दृष्टि से देखता है, यद्यपि दिगम्बर और श्वेताम्बर समाज के शास्त्रों में पर्याय अनैक्य है, किन्तु सभी अपनी-अपनी समाज के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org