Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
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सुन्दर मित्र ! मूर्ति पूजा में धर्म मानने का सिद्धान्त श्वेताम्बर जैन समाज का है ही नहीं, यह तो काल बल से सांसारिक भूत नागादि देवों की या बौद्धादि मत की देखादेखी से स्थान पाई हुई विकृति ही है । इस विकृति को आपको हटाना चाहिये। बिना विकृति निकले धर्म रूप शरीर स्वस्थ हो ही नहीं सकता, यह खूब सोचलें ।
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मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म
का सम्बन्ध
श्री ज्ञानसुन्दर जी ने पांचवें प्रकरण में मूर्तियों के प्राचीन होने का उल्लेख कर तथा कुछ चित्र देकर यह सिद्ध करना चाहा है कि मूर्तिपूजा तथा इसमें आत्म-कल्याण रूप धर्म मानने का रिवाज बहुत पुराना है, इसलिए मूर्ति पूजा उपादेय है किन्तु यह विचार भी विचारशीलता से रहित है क्योंकि -
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(१) मूर्तियों की स्थापना प्रारम्भ में केवल यादगार (स्मारक) रखने की भावना से हुई, पूजा के लिए नहीं ।
(२) मूर्तियों के सभी लेख सच्चे नहीं, न केवल अनुमान से ही कोई सिद्धान्त अटल हो सकता है।
प्राचीन होने मात्र से ही उपादेय नहीं ।
(३)
(४)
सर्व मान्य आगम प्रमाणों के सामने इसका कोई मूल्य नहीं ।
इन कारणों से ही विचारशील सज्जन मूर्ति पूजा की उपादेयता स्वीकार नहीं करते हैं, जरा विस्तार से लीजिये -
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