Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
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इस प्रकार अपने पक्ष को प्रबल बनाने के लिये पक्षकार अनहोनी भी कर बैठते हैं। इसलिये मूर्तियों के शिलालेखों और उनकी प्राचीनता की दुहाई सुनकर या पढ़कर ही हमें विश्वास नहीं कर लेना चाहिये, जब तक पूर्ण अन्वेषण नहीं हो जाय तब तक ये वस्तुएं एकदम विश्वास कर लेने के योग्य नहीं है। श्री ज्ञानसुन्दरजी ने भी मथुरा के म्युजियम की मूर्तियों को बहुत ही प्राचीन होने पर जोर दिया है किन्तु इस म्युजियम की परिचय पुस्तिका को देखने से पता चलता है किकुषाण काल (ईस्वी प्रारम्भ से तीसरी शताब्दी तक) से पहले कहीं भी आज तक बुद्ध की मूर्ति नहीं मिली (देखो पृ० ३)........कनिष्ठ के राज्य काल (ईस्वी सन् ७८ से १०२ तक) में तो बुद्ध और बोधिसत्व मूर्तियों की बाढ़ आ गई साथ ही जैनों के चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियाँ भी बहुतायत से बनने लगीं। (देखो पृ० ३-४) आदि तथा स्वयं सुन्दर मित्र ने भी “जैन जाति का संगठन कैसे हो” नामक एक लेख में महाजनों का इतिहास बताते हुए लिखा कि - "उस जमाने में जैनाचार्यों की भी यह पद्धति थी कि जहाँ नये जैन बनाये वहाँ जैन मन्दिर, विद्यालाय और ज्ञान भंडार स्थापित करवा देते, क्योंकि मन्दिर मूर्तियों आदि धर्म प्रचार में मौख्य कारण थे, फिर भी उस समय वादी प्रतिवादियों का खंडन मंडन और आक्रमण और धर्म परिवर्तन का भी जोर था, इसलिए मन्दिर मूर्तियों की विशेषावश्यक्ता थी।
(जैन पत्र भावनगर ता० १५-३-३६ पृ० २६१) इस पर से भी यह पद्धति अधिक प्राचीन नहीं पाई जाती, फिर भी यह विषय बहुत खोज करने बाद विचार करने का है। जिससे नये पुराने का पता लगे, किन्तु बहुत प्राचीन षड्यन्त्रों का पता लगाना तो एकदम असम्भव ही है, फिर भी यदि इन्हें प्राचीन मान लिया जाय तो
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