Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
इस प्रकार इस्लाम के मूल सिद्धान्त भी मूर्ति पूजा के प्रतिकूल है, मैंने एक मौलवी साहब से ताजिये बनाने की प्रथा के सम्बन्ध में बातचीत की, तो उन्होंने कहा कि यह प्रथा बादशाह तैमूर के जमाने से प्रारम्भ हुई है। कुरान शरीफ में इसका कहीं भी उल्लेख नहीं है। इस पर से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐसी प्रवृत्ति मार्ग की प्रेरक प्रथाएं किसी कारण से या संसर्ग से प्रारम्भ होकर शीघ्र ही वृद्धिंगत हो जाती है। पहले प्रारम्भ में इनका रूप बहुत ही सूक्ष्म रहता है, किन्तु समय पाकर वही भयानक हो जाती है।
मूर्ति पूजा की पद्धति अज्ञानियों के लिए आकर्षक है। वे बाह्याडम्बर से मोहित होकर उसे चाहने लग जाते हैं, नहाना, धोना, पुष्प चुनना, सुगंधित धूप, इत्र आदि की महक नेत्रों को लुभाने वाली सजाई, कर्ण के लिए मधुर राग, साथ ही वादिंत्र नाद, फिर अज्ञानी, धर्म तत्त्व से रहित भोले लोग या फिर इन्द्रियों के दास सुख शीलिये, पुद्गलानंद में मस्त होकर इन आकर्षक पुद्गलों के केन्द्र रूप मन्दिरों और मूर्तियों की और झुकें तो आश्चर्य ही क्या? यह वस्तु ही ऐसी है कि जिसे रागभाव की प्रबलता वाले अधिक चाहते हैं।
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दो चार वर्ष पहले की बात है, एक बार पर्युषण पर्वाधिराज के दिनों में मैंने अपने ज्येष्ठ पुत्र ( जो उस समय लगभग ८ वर्ष का था ) को कहा कि चलो स्थानक में प्रतिक्रमण करने चलें । उसने कहा कि स्थानक में क्या रखा है, वहाँ तो अन्धेरा है, आप लोग वहाँ अंधेरे में बैठकर मुंह से कुछ बोला करेंगे, मुझे वहाँ अच्छा नहीं लगता, मैं तो मन्दिर में जाऊंगा, वहाँ अच्छी रोशनी है, रोजाना मूर्ति को अच्छीअच्छी नई-नई पोशाकें पहिनाई जाती हैं। हारमोनियम तबले आदि बजते हैं, लोग नाचते कूदते हैं, इस प्रकार वहाँ बड़ा अच्छा जलसा
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