Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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मूर्तियों की प्राचीनता से धर्म का सम्बन्ध
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" ज्येष्ठ शु० ६ गुरुवार को मध्यरात्रि को पन्यासजी महाराज लघुशंका निवारणार्थ जागृत हुए, बाधा निवारण के बाद उनके सामने एक लम्बे शरीर वाला श्वेत वस्त्र धारी पुरुष उपस्थित होकर कहने लगा कि - "मुझे भी काम बताओ" तब महाराज साहब ने उसका अत्याग्रह देखकर कहा कि - "यह पत्थर पड़े, जो पत्थर के घड़े हुए आठ पाये (थंभे) मन्दिर के बाहर पड़े थे, वजन बहोत भारी कम से कम १२ मन बंगाली वजन में होगा। जिसको कम से कम ८ - १० आदमी मुश्किल से उठा सकें। बस इतना सुनते ही उक्त पुरुष ने चट मंदिर के द्वार को झपट से खोल कर एक-एक पाये को उठाकर आठों ही पायों को व्यवस्थासर रख दिये, फिर वह पुरुष गायब हो गया। सुबह होते ही यह घटना सारे गांव में फैल गई आदि ।
उक्त समाचारों के प्रकाशित होने पर श्रद्धालु भक्तों पर इसका क्या असर हुआ होगा? यह पाठक स्वयं सोच लें, जबकि रास्ते के किसी सिंदूर लगे हुए पत्थर को हमारी भोली भाली हिन्दु और जैन जनता देवता मानकर नतमस्तक होने को एकदम तैयार हो जाती है, राह चलते ढोंगी और पाखण्डी को भी पहुँचे हुए महात्मा मानकर आदर करने लग जाती है, तब भला जैन महात्मा और वे भी मामूली नहीं किन्तु “पन्यास प्रवर" फिर विश्वास क्यों न करे ? महात्माजी की प्रशंसा अनेक कण्ठों से होने लग गई होगी ? महात्माजी पन्यास प्रवर "चौथे आरे की वानगी" का विशेषण पा गये होंगे ? किन्तु बुरा हो इन भण्डा फोड़ने वालों का, जो षड्यंत्रकारियों की आशाओं पर एकदम पानी फिरा देते हैं? इसी जैन पत्र में कुछ दिन बाद एक शीर्षक दिखाई दिया कि -
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