Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
२०३ **************************************** थी, किन्तु समय पाकर विकृति ने पैर पसारा और ये पूज्य बन गये। इसके सिवाय बनारस से प्रकाशित होने वाली नागरी प्रचारिणी पत्रिका में पं० चन्द्रधर शर्मा का “देवकुल' विषयक लेख का निम्न अवतरण पढ़िये, आपका संशय दूर होकर सत्य वस्तु दिखाई देगा।
“देव पूजा का पितृ पूजा से बड़ा सम्बन्ध है। देव पूजा पितृ पूजा से ही चला है, मन्दिर के लिए सबसे पुराना नाम चैत्य है, जिसका अर्थ चित्ता (दाह स्थान) पर बनाया हुआ स्मारक है। शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख है कि शरीर को भस्म करके धातुओं में हिरण्य का टुकड़ा मिलाकर उन पर स्तूप का चयन (चुनना) किया जाता था। बुद्ध के शरीर-धातुओं के विभाग तथा उन पर स्थान-स्थान पर स्तूप बनने की कथा प्रसिद्ध ही है! बौद्धों तथा जैनों के स्तूप और चैत्य पहले स्मारक चिह्न थे फिर पूज्य हो गये।"
__ सुन्दर बन्धु! वास्तव में आप लोगों ने और आपके पूर्वजों ने स्मारक चिह्नों को ही पूज्य बना दिया है, जो कि अनुचित है अतएव अब भी आपको सरल बुद्धि से समझ कर हठ को छोड़ देना चाहिए।
(३०) भक्ति या अपमान साधुमार्गी समाज पर पूरी कृपा रखने वाले श्री ज्ञानसुन्दर जी महाराज ने पृ० १७६ में मूर्ति की पानी और पुष्पों से पूजा करने में कुछ असभ्य अप शब्दों के बाद एक युक्ति प्रस्तुत की है जो निम्न प्रकार से हैं।
जैसे किसी मनुष्य के घर एक परोपकारी पुरुष चला जावें और घर वाले को उस पुरुष से भविष्य में महान् लाभ होने की आशा हो जावे तो वह घरपति अपनी शक्ति, सम्पत्ति और अधिकार के सद्भाव
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