Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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१८८ स्वर्ण गुलिका से मूर्ति का मिथ्या सम्बन्ध *******************************************
“श्री उदायन राजा एक समय पौषधशाला में धर्मध्यान में समय व्यतीत कर रहे थे, उनके मन में यह भावना हुई कि - यदि श्रमण भगवंत वीर प्रभु यहाँ पधारे तो मैं उनके पास व्रत अंगीकार करूँ, प्रभु राजा के मनोगत भाव जानकर चम्पा से वीतभय नगर पधारे राजा ने धर्मोपदेश श्रवण कर अपने पुत्र को राजकीय झंझटों से बचाने और
आत्मोत्थान के अभिमुख करने के विचार से भाणेज केशीकुमार को राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर आत्म-कल्याण किया।"
श्रीमद्भगवती सूत्र में बस इतना ही कथानक हैं, किन्तु कथाकार महात्माओं ने इनके विषय की कितनी ही अनहोनी घटनायें अपनी कथाओं में भर दी, जिसमें जहाँ देखो वहाँ मूर्ति तो है ही गीशीर्षचन्दन की मूर्ति का विचित्र प्रकार से आना और रानी का मूर्ति को पेटी में से निकालना, रानी का मूर्ति के सामने नाचना और राजा का बाजा बजाना, रानी का नाचते हुए मस्तक रहित शरीर राजा को नजर आना, रानी का नाच भंग होना, एक दासी की हत्या, रानी का दीक्षित होना, तब तक राजा का अजैन रहना, फिर प्रतिमा के साथ दासी का उड़ाया जाना, बदले में एक दूसरी मूर्ति कपिल केवली (नाचने वाले-त्रि० श० पु० च०) द्वारा प्रतिष्ठित रख देना, राजाओं का युद्ध, मूर्ति का चमत्कार, नगरी भंग का भविष्य आदि कितनी ही बातें कथा में भर दी गई हैं, इसमें भी जहाँ देखो वहाँ मूर्ति ही मूर्ति, यह स्पष्ट बता रहा है कि कथाकारों ने मूर्ति के मोह में अलमस्त होकर कई कल्पना शास्त्र रच डाले हैं। यहाँ तक कि ऐसा करते हुए कहीं-कहीं तो.सूत्रों की भी उपेक्षा कर बैठे, जैसे कि सूत्र में तो उदायी को श्रमणोपासक बताया है और बिना किसी विशेष प्रयत्न के अपनी इच्छा से ही प्रभु के पधारने की भावना रखने वाला बताकर प्रभु के एक ही उपदेश से दीक्षित होने वाला बतलाया है,
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