Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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चमरेन्द्र और मूर्त्ति का शरण
नहीं गिनाकर पृथक् पृथक् गिनाया है इसका भी खास कारण यही है कि वैयावृत्य के पात्रों का स्पष्ट ज्ञान हो जाय, इसी प्रकार आश्रय दाता छद्यस्थ अरिहंत के लिए उक्त शब्द पृथक् रखना स्वाभाविक हैं।
इसके सिवाय यदि सुन्दर कथनानुसार उक्त शब्द का मूर्ति अर्थ मान भी लें तो भी कोई बाधा नहीं है क्योंकि जिस प्रकार पहले देशी राज्यों में धर्म स्थानों की इतनी मर्यादा थी कि वहाँ पहुँचने वाला अपराधी जब तक वहाँ रहता गिरफ्तार नहीं किया जाता, अथवा जैसे किसी एक महात्मा के दो भक्त हैं, यदि दोनों के आपस में तकरार हो गई हो और उनमें से किसी ने वहाँ महात्मा के नामकी दुहाई (शपथ) दे दी, हो तो वहाँ भी झगड़ा आगे बढ़ने से रुकना संभव है । हमारे इस प्रांत में एक ऐसा डाकू था कि यदि उसे कोई “मामा" कह दे तो फिर वह उसकों लूटता नहीं था । इस तरह मात्र नाम या मकान से भी असर होना पाया जाता है, जिस राजा के राज्य में रहते हों उसकी दुहाई देने से भी पहले बहुत बचाव हो जाता था । इस तरह नाम मात्र ही माने उसके लिए असर कारक हो सकता है तो इस तरह मूर्ति हो तो भी कोई आश्चर्य नहीं, किन्तु इसमें आत्मिक कल्याण मानना तो सचमुच विचार शून्यता है * और ऐसे प्रमाण देना ही अनुचित हैं। आशा है सुन्दरजी इस पर गहरा विचार कर अपने पकड़े हुए हठ को छोड़ेंगे।
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* अरिहंत चैत्य शब्द के लिए यहाँ यह भी संदेह होता है कि जिस प्रकार उपासक - दशांग, उववाई का अंबड़ाधिकार तथा चम्पा वर्णन में गड़बड़ी हुई है और पाठ प्रक्षिप्त हुए हैं, उसी तरह यहाँ भी तो ऐसा नहीं हुआहो ? क्योंकि चारों स्थलों में शब्द एक समान ही हैं। तीन स्थलों की चालाकियें तो पकड़ली गई किन्तु यदि शोधक विद्वान् खोज करेंगे तो संभव है इस स्थल के विषय में भी कुछ पता लगे ।
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