Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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चमरेन्द्र और मूर्ति का शरण ******************************************* हैं। भला ऐसी मूर्ति जो अपना ही रक्षण आप न कर सके और दूसरों के आश्रय में रहे, वह क्या किसी के लिए शरण भूत हो सकतीहै? कदापि नहीं। स्पष्ट सिद्ध हुआ कि मूर्ति की शरण बतलाना एकदम मिथ्या है।
शक्रेन्द्र ने जब यह सोचा कि - सौधर्म स्वर्ग में चमरेन्द्र अरिहंत और अनगार महाराज के नेश्राय बिना नहीं आ सकता है तब उन्हें विचार हुआ कि -
तं महादुक्खं खलु तहारूवाणं, अरहंताणं, भगवंताणं अणगाराण य अच्चासायणाए। ____यहाँ शक्रेन्द्र ने अरिहंत, भगवंत और अनगार महाराज की अत्याशातना ही मानी है। इसमें अर्हत चैत्य शब्द नहीं होने से सुन्दरजी ने सोचा कि इससे हमारे मूर्तिमत को बाधा पहुँचती है और इस पाठ से कहीं हमारे मूर्ति पूजक कुछ शङ्का नहीं उठा लें, इसलिए सुन्दर मित्र ने यह कहकर जाल फैलाया है कि - "अरिहंत की आशातना में ही अरिहंत मूर्ति की आशातना का समावेश है।"
___ यह सुन्दर चाल भी विचित्र है। यदि अरिहंत शब्द में मूर्ति का समावेश हो जाता है तो सुन्दर मित्र अरिहन्त चैत्य शब्द के लिए क्यों व्यर्थ का कुतर्क करते हैं? किन्तु नहीं, सुन्दरजी जहाँ अरिहंत चैत्य होगा वहां तो अरिहंत शब्द में मूर्ति होना नहीं मानकर अरिहंत चैत्य शब्द से मूर्ति अर्थ मानेंगे और जहाँ नहीं होगा अरिहंत शब्द में ही मूर्ति मानकर केवल उसी शब्द से मूर्ति की वन्दना, पूजा भी मान लेंगे। यह प्रत्यक्ष पक्ष व्यामोह है, सुन्दरजी को अत्याशातना के स्थान पर अरिहंत चैत्य नहीं होने से अरिहंत शब्द ही से मूर्ति की आशातना मानकर अपना काम चला लेना पड़ा। किन्तु सुन्दर बन्धु को यह भी मालूम नहीं है कि आगम में तेंतीस प्रकार की आशातना बतलाई है, उसमें भी
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