Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
१७३ 來來來來來來來***客來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來安本本次交本次
उक्त तीन प्रकार के प्रमाणों में सारे आगमों के ऐतिहासिक महात्माओं और श्राद्धवों के इतिहास का सार आ गया, जिसमें सैंकड़ों इतिहास साक्षी हैं, किन्तु किसी एक में भी स्थापना का उल्लेख नहीं है, अतएव सिद्ध हुआ कि स्थापनाचार्य का अडङ्गा मूर्तिमति महानुभावों की अनोखी सूझ का ही फल है।
सुन्दर मित्र पूछते हैं कि “स्थापना नहीं होने पर सामायिक प्रतिक्रमणादि में आदेश किसका ले” इसके उत्तर में कहा जाता है कि जब तक गुरु आदि ज्येष्ठ उपस्थित हों तब तक तो उन्हीं की आज्ञा ली जाती है और उनकी अनुपस्थिति में शास्त्रानुसार क्रिया करने में प्रभु की आज्ञा चाही जाती है, जैसे कि “अनशन स्थल पर जाकर अनेक मुनियों ने और सुदर्शन आदि श्रावकों ने कहा है कि - नमस्कार हो अरिहन्त भगवन्त को, नमस्कार हो धर्माचार्य को, आप यहाँ नहीं हो, किन्तु जहाँ हो वहाँ से सब जानते देखते हो, मैं आपकी आज्ञा से अमुक व्रत या क्रिया करता हूँ" आदि ऐसे प्रमाण बहुत से सूत्रों में मौजूद हैं बस इसी माफिक हम भी करते हैं। हमें स्थापना की कोई आवश्यकता नहीं, हम स्थापना को निरर्थक समझते हैं बल्कि हमारी तो यह मान्यता है कि - जो स्थापनाचार्य को रखकर उनसे आज्ञा मांगते हैं वे छोटे बच्चों के समान हैं, जो पत्थर के गोल मोल गणेश बिठाकर उनसे लड़ मांगते हैं। क्या सुन्दर जी यह समझाने की कृपा करेंगे कि इनके जड़ स्थापनाचार्य किस तरह आदेश देते हैं? चैतन्यधारी मनुष्य तो आदेश दे सकता है, पर जड़ से आदेश तो जड़ोपासक ही पा सकते होंगे?
सुन्दर मित्र! आप और आपके अन्य मूर्तिपूजक साधुओं ने स्थापनाचार्य का व्यर्थ सहारा लेकर साक्षात् आचार्यों की भी उपेक्षा कर
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