Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
सुन्दर मित्र ! शरम तो आप लोगों को आनी चाहिये, जो मोक्ष प्राप्त तीर्थंकरों को भी सचित्त जल, फल, फूलादि चढ़ाने और मूर्ति के आगे माथा रगड़वाने की मूर्खता प्रदर्शित करते हैं। हमें शरमाने की आवश्यकता ही क्या? हमतो ऐसी लज्जाजनक क्रिया से सर्वथा दूर ही रहते हैं ।
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इसके सिवाय आपने द्वीपसागर पन्नति का उद्धरण देकर साथ ही यह भी समाधान कर दिया कि ठाणांग सूत्र में इसका उल्लेख हैं, और इस विषय में यह भी लिखा है कि आप अपने पूर्वज लोकागच्छ के यतियों से प्रश्न करें।" आदि
महानुभाव! आपको स्थानांग सूत्र का प्रमाण देने का कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं और न इस प्रमाण से आप हमें द्वीपसागर पन्नति को मानने का आग्रह ही कर सकते हैं क्योंकि यद्यपि सूत्रोल्लिखित सभी शास्त्र हमें मान्य हैं, तथापि हम इसलिए इन सूत्रों को सम्पूर्ण रूप से प्रमाणित नहीं मानते हैं कि इनमें समय के फेर से अनिष्ट परिवर्तन बहुत हुआ है, ये शास्त्र जैसे पहले थे, वैसे इस समय नहीं रहे, इस विषय में आगे चलकर एक स्वतन्त्र प्रकरण से हम विशेष रूप से समझावेंगे।
आप हर जगह लोंकागच्छीय मूर्ति पूजक यतियों के अर्थों को प्रमाण में देते हैं तथा उन्हें हमारे पूर्वज बताते हैं यह आपकी पूरी सज्जनता है जबकि हम यह सिद्ध कर चुके और सभी जानते हैं ि वर्तमान लोंकागच्छीय यति श्रीमान् लोकाशाह के वंशज नहीं पर उस धर्मवीर के सिद्धान्त से एकदम बहिष्कृत हैं। क्योंकि उस पुण्यात्मा की श्रद्धा मूर्ति पूजा में बिलकुल नहीं थी, और ये लोग मूर्ति पूजक हैं। फिर ऐसे लोगों का (जो आपके ही समान हैं) सहारा लेना और शुद्ध साधुमार्गी क्रियापात्र मुनियों को उनके वंशज बताना, दिन दहाड़े डाका डालने के समान है। दुनिया जानती है कि स्था० समाज के
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