Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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चारण मुनि और मूर्ति पूजा
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पाछलदीधुं थाप ॥२१॥
"ते वखते संघ नहीं कह्यो, पासत्थाए हो? (मेझर नामा ढाल २३) कहिये मित्र ? यह क्या माजरा है? एक स्थान पर तो आप ( पृ० ६५ में) संघ निकाल कर यात्रा करने की प्रेरणा करते हैं इसे पवित्र कार्य बताकर इसमें लाभ होना भी लिखते हैं और मेझरनामें में स्वयं आप ही संघ निकालने की प्रवृत्ति को नूतन और शिथिलाचारियों की चली हुई बताते हैं, यह क्या बात है ? क्या यहीं मूर्ति की स्थापना करते-करते मत्तमोह में मस्त तो नहीं हो गये कि जिससे अपनी पूर्व बात का ध्यान ही न रहा? वास्तव में पक्षपात मनुष्य के ज्ञान का लोप कर देता है।
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आगे चलकर इसी ६५ वें पृष्ठ पर स्थानांग सूत्र का उदाहरण देकर यह लिखते हैं कि
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" इस पाठ में जिन प्रतिमाओं का नाम ऋषभ, वर्द्धमान, चन्द्रानन और वारिसेण जो तीर्थंकरों के शाश्वत नाम हैं उन्हीं तीर्थंकरों की मूर्तियाँ बतलाई हैं जिनके नाम की माला एवं जाप हमारे स्थानकवासी भाई हमेशा करते हैं उन्हीं की मूर्तियों को वन्दन नमस्कार करने में वे लोग शरमाते हैं यही तो एक आश्चर्य की बात है अर्थात् अज्ञान की बात है।"
सुन्दर मित्र ने यहाँ भी खूब प्रपञ्च रचा है क्योंकि इनका यह लिखना एकदम झूठ है कि - स्थानकवासी देवलोक स्थित मूर्तियों के नाम की माला फिराते हैं यद्यपि सुन्दर मित्र यह जानते हैं कि स्थानकवासी समाज इन शाश्वती प्रतिमाओं को तीर्थंकर की होना नहीं मानता, और न तीर्थंकर की मूर्ति के नाम की माला ही फिराई जाती है फिर भी इस प्रकार इनका लिखना, मायायुक्त मिथ्या होकर जनता को भ्रमजाल में फंसाने के दुष्ट अभिप्राय से ओत प्रोत है।
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