Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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लोंका-गच्छीय यति *******************学学*********************
आशा है कि अब आगे पर आप ऐसी हरकतों से बाज आकर निंदकपन से वंचित रहेंगे।
पाठकगण! देख लिया आपने तमाशा? यही मरुधर केशरी (श्री ज्ञानसुंदर जी) एक तरफ तो आज्ञा में ही धर्म और आज्ञा से बाहर अधर्म मानते हैं और दूसरी तरफ स्थानक वासियों के ऊपर अपने द्वेष के कारण तथा मूर्ति पूजा पक्ष के पक्षपाती होने के कारण उसी प्रभु आज्ञा के लिए थोथे बनते हैं, जबकि इन्हीं महानुभाव के पक्षकार कथानकों की ओट लेने को मिथ्या प्रपंच प्रकट कर आज्ञा रूपी प्रमाण को ही पुष्ट प्रमाण मानते हैं, तब सुन्दर बाबा की बौखलाहट का मूल्य ही क्या है? अतएव खुलमखुल्ला यह सिद्ध हो गया कि मतभेद
और आचार विधान के मामलों में कथाओं की ओट लेने वाले जनता को उन्मार्ग की ओर धकेलने और द्वेष फैलाने वाले भयङ्कर जन्तु हैं।
(रर) लोका-गच्छीय यति श्री ज्ञानसुन्दरजी ने कई स्थानों पर यह प्रश्न किया है कि -
“आप पूर्वज लोंकाशाह के गच्छ के यतियों का किया हुआ अर्थ आप नहीं मानते हो तब आप लोंकाशाह के अनुयायी कैसे हो सकते हो?" - इसके सिवाय स्थानकवासी समाज को लोंका-गच्छीय मूर्ति पूजक यतियों के लिए हुए अर्थों का प्रमाण मानने का आग्रह भी हर स्थान पर किया गया है, इस विषय में हमारा सुन्दर मित्र से यही कहना है कि -
महानुभाव! आपकी यह माया जाल भोले भाइयों या निरक्षर
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