Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैसा
जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
११३ * ********************************************
जबकि-आनन्दाधिकार और सारे उपासक दशांग में भी मूर्तिपूजा का नाम निशान तक नहीं है, तब सुन्दरजी को अपने मिथ्या पक्ष को पुष्ट करने के लिए निम्न दो कुतर्क उठाने पड़े हैं, जो पृष्ठ ७८, ७६ से पाये जाते हैं, तद्यथा -
१. सूत्र संक्षिप्त कर दिये गये।
२. समवायांग में उपासक दशांग की नोंध में श्रावकों के मूर्ति पूजा का कथन है।
यह दो कुतर्क सुंदरजी ने उठाए हैं, किन्तु पाठकों को यह ध्यान में रखना चाहिए कि यह दोनों कुतर्क सुंदरजी के निजी नहीं है, किन्तु विजयानन्द सूरि के “सम्यक्त्व शल्योद्धार पृ० ८५” के हैं, विजयानंद सूरि ने यह तो स्वीकार कर लिया है कि-उपासक दशांग सूत्र में मूर्तिपूजा का पाठ नहीं है किन्तु सुंदरजी तो उनसे भी बढ़कर कुतर्की हैं देखिये, विजयानंद जी का स्पष्ट कथन -
“यद्यपि उपासक दांग में यह पाठ नहीं है क्योंकि पूर्वाचार्यों ने सूत्रों को संक्षिप्त कर दिया है तापि समवायांग में यह बात प्रत्यक्ष है।"
इससे भी सिद्ध हुआ कि उपासक दशांग सूत्र में मूर्ति पूजा का पाठ नहीं है। अब आनन्द श्रमणोपासक की काल्पनिक (आदरणीय) प्रतिज्ञा को भी देखिए -
"कप्पई मे समणे णिग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गह कंबल पाद पुच्छणेणं पीढफलगसिज्जा संथारेणं ओसह भेसज्जेणं पडिलाभेमाणे विहरित्तए।"
अर्थात् आनन्द श्रावक प्रतिज्ञा करता है कि “मुझे श्रमण निग्रंथ को प्रासूक एषणिक आहारादि प्रतिलाभते हुए विचरना कल्पता है।"
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