Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तुंगका के श्रमणोपासक
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को कहा कि “जब तू स्नान बलिकर्म करके देव पूजने को जावे" यहाँ स्नान और बलिकर्म के बाद देव पूजन बतलाया इससे भी स्पष्ट हुआ कि बलिकर्म देवपूजा नहीं है, देवपूजा इससे भिन्न है अतएव सिद्ध हुआ कि स्नान शब्द के साथ आया हुआ बलिकर्म शब्द स्नान के विस्तार को ही बताने वाला है।
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(५) इसी सूत्र में आगे चलकर केशीकुमार श्रमण ने प्रदेशी को वन जीवी * लोगों का दृष्टान्त दिया, उसमें बताया कि वे लोग वन में कष्ट लेने गये, वहाँ बड़ी अटवीं में उन्होंने स्नान बलिकर्म किया। यदि यहाँ भी देवपूजा कहो तो इस पर से यह प्रश्न होता है कि जंगल में उन्होंने किस की पूजा की ? वहाँ किसी मन्दिर मूर्ति का होना तो संभव ही नहीं। क्योंकि यह एक बड़ी अटवी है, अतएव कयबलिकम्मा कर अर्थ यहाँ भी स्नान विशेष ही है।
(६) दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र की दशवीं दशा में यह उल्लेख है कि जब श्रेणिक राजा और चिल्लण देवी के रूप सौन्दर्य को साधुसाध्वियों ने देखा तो इन दोनों के ऐश्वर्य वैभव और सुखोपभोग के प्रति उनका ध्यान आकर्षित हुआ वे अपने मन में उसके सुखोपभोग का स्मरण इस प्रकार करने लगे.
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'आश्चर्य है कि श्रेणिक राजा अत्यन्त ऐश्वर्य सम्पन्न होकर सम्पूर्ण सुखों का अनुभव करने वाला है और स्नान बलिकर्म कौतुक मङ्गल और प्रायश्चित कर सब तरह के आभूषणों से भूषित हो चिल्लणादेवी के साथ सर्वोत्तम काम भोगों को भोगता हुआ विचरता है । हमने ऐसा देवों में भी नहीं देखा । यदि हमारे तप संयम का फल हो तो हमें भी भविष्य में ऐसे उत्तम भोग प्राप्त हो । "
* वन की लकड़ियों को बेंचकर आजीविका करने वाले ।
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