Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
११५ * ***************************************** करने का कथन नहीं होने मात्र से ही सूत्र के संकुचित होने की मिथ्या डींग मारना, सरासर हठधर्मी पन ही है। ... यदि आनंद मन्दिर निर्माण करवाता या मूर्ति स्थापित करता या दर्शन पूजन करता, या कभी संघ निकालकर यात्रा करता तो गणधर महाराजा अवश्य इसकी भी नोंध लेते? विस्तृत रूप से नहीं तो थोड़े से शब्दों में ही सही, पर कुछ न कुछ वर्णन तो अवश्य मिलता? आश्चर्य की बात है कि जो (मूर्ति-पूजा) पद्धति धर्म का मुख्य अंग मानी जाती हो और उसके लिए आदर्श धर्मात्मा उपासकों के जीवन विस्तार में बिन्दु विसर्ग तक नहीं मिले यह क्या थोड़े विचार की बात है? इससे तो स्पष्ट सिद्ध होता है कि उस समय मूर्ति पूजा में धर्म मानने की जैन श्रद्धा नहीं थी। न वे श्रावक वयं ही मूर्ति पूजा में धर्म मानते थे। यदि उनकी श्रद्धा सुन्दरजी के मतानुसार होती तो वे आदर्श श्रावक अवश्य ऐसी क्रियाएं करते और उनकी जीवनी में इसकी नोंध भी अवश्य
होती?
: यह हरगिज नहीं हो सकता कि मामूली बातों का सूत्रकार वर्णन करे और आवश्यक बात को छोड़ दे। अतएव सूत्र संकुचित होने की कुयुक्ति भी अनुचित है। इसके अतिरिक्त संकुचित का अर्थ है विस्तृत के विस्तार को घटाकर थोड़ा कर देना,जो वस्तु दश या बीस शब्दों में बताई गई हो उसे एक या दो शब्दों में ही बताकर संक्षिप्त कर देना। किन्तु संकुचित के माने किसी वस्तु को ही उड़ा देना नहीं होता, संकुचित या संक्षिप्त में तो वस्तु का सद्भाव अवश्य रहता है। इस हिसाब से भी यदि विस्तृत रूप से नहीं तो संक्षिप्त रूप से मूर्ति पूजा का वर्णन दो चार वाक्यों में तो अवश्य होना चाहिए था, किन्तु जब मूर्ति
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