Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
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(१५) देवाणं-आसायणाए मि० ज्ञानसुन्दरजी ने अपने पोथे के पृ० ७५ में लिखा है कि -
आप खुद भैरव वगैरह की मूर्ति को पूठ देकर नहीं बैठते हो आपके सब साधु साध्वी प्रतिदिन दो वक्त प्रतिक्रमण करते समय कहते हैं कि - "देवाणं आसायणाए, देवीणं आसायणाएं" इसको जरा सोचो एवं समझो कि उन देव देवी की पाषाणमय मूर्तियों की आशातना की हो तो मिच्छामि दुक्कडं स्वयं आपको देना पड़ता है, जब मूर्ति की आशातना का इतना बड़ा पाप है तो उसकी भक्ति का पुण्य होना तो स्वतः सिद्ध है इसमें सवाल ही क्या हो सकता है ?
मिस्टर सुन्दरजी का उक्त कथन भी विचार शून्यता का है। क्योंकि “देवाणं आसायणाए, देवीणं आसायणाए" का तात्पर्य देवी-देवता की पाषाणमय मूर्ति से नहीं है। सूत्र में ३३ प्रकार की आशातनाओं का वर्णन है, उसमें अरिहंत से लेकर साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, इहलोक, परलोक, धर्म, देव, मनुष्य युक्त लोक, काल, सूत्र, सूत्रदाता, सर्वप्राणी, भूत, जीव, सत्त्व इनकी भी आशातना बताई गई है तो क्या सुन्दर हिसाब से सभी आशातनाओं का मतलब मूर्ति से ही है? सुन्दरजी! कुतर्कों से बाज़ आओ, ये आशातनाएं मूर्ति से कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखती, "न देवाणं आसायणाए" का तात्पर्य ही मूर्ति आशातना का है। क्यों बेचारे भोले भोंदुओं को भ्रम में डालते हो? "देवाणं आसायणाएं" का मतलब देवताओं का अस्तित्व नहीं स्वीकार ने से या उनके अवर्णवाद बोलने से ही है, किन्तु मूर्ति से नहीं। “ठाणाङ्ग सूत्र में भी दुर्लभ बोधि होने के पांच
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