Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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आनंद-श्रमणोपासक
दशांग सूत्र के आनन्दाधिकार में तो ठीक पर सारे सूत्र में कहीं भी किसी श्रावक के मूर्ति पूजने का नाम निशान तक नहीं है। फिर सुन्दर मित्र क्यों व्यर्थ में आकाश पाताल एक कर रहे हैं? आनंद श्रावक ने मन्दिर बनाये या मूर्ति पूजा की या संघ निकाल कर यात्रा की, ऐसा कथन सूत्र में तो अणुमात्र भी नहीं है। इस विषय में मूर्ति पूजक लोग जो कुछ भी कहते हैं, कल्पना कहानी मात्र है।
मूर्ति-पूजा के समर्थक श्री ज्ञानसुन्दरजी ने आनंद श्रमणोपासक को मूर्ति-पूजक ठहराने के लिए आनंद की त्याग प्रतिज्ञा का अवतरण दिया है, यहाँ हम उस स्थल का प्राचीन प्रति के आधार से शुद्ध पाठ देते हैं।
‘णो खलु मे भंते! कप्पइ अज्जप्पभिई अण्णउत्थिर वा, अण्णउत्थिय देवयाणि वा, अण्णउत्थिय परिग्गहियाणि "चेइयाइं" वंदित्तए वा णमंसित्तए वा, पुव्विंअलाणत्तेणं आलवित्तए वा, संलवित्तए वा, तेसिं असणं वा, पाणं वा, खाइमं वा, साइमं वा, दाउं वा अणुप्पदाउं वा॥' ___ यह आनंदाधिकार का शुद्ध पाठ प्राचीन प्रति के अनुसार है इसमें आनंद श्रावक ने त्याग कोटि की प्रतिज्ञा करते हुए कहा है कि - हे प्रभो! आज पीछे मुझे अन्ययूथिक (जैन के सिवाय अन्य मतावलम्बी) को अन्ययूथिक देव को और अन्ययूथिक के ग्रहण किये हुए साधुओं को वंदन नमस्कार करना, उनके बोलाने के पहिले ही बोलना, बारम्बार बोलना, अशनादि देना, बारम्बार देना नहीं कल्पता है।
इस सूत्र में मूर्ति पूजने या नहीं पूजने का नाम भी नहीं है, किन्तु मूर्ति-पूजक बन्धुओं के पूर्वज आनंद के सारे अध्ययन में मूर्ति का नाम
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