Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
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भी नहीं देखकर अपनी मूर्ति-पूजा रूपी कही जाने वाली धर्म करणी को प्रमाण शून्य समझने लगे, तब उन लोगों ने इस पाठ में एक शब्द और अपनी ओर से बढ़ा दिया, जहाँ प्राचीन प्रति में " अण्ण उत्थिय परिग्गहियाणि चेइयाई” वाक्य है वहाँ
" अण्ण उत्थिय परिग्गहियाणि "अरिहंत" चेइयाइं पाठ बना दिया अर्थात् इस सारे वाक्य में “अरिहंत” शब्द अधिक प्रक्षिप्त कर दिया और अर्थ करने लगे कि .
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" अन्यतीर्थियों के ग्रहण किये हुए अरिहंत चैत्य अर्थात् “जिन प्रतिमा" इसे आनंद को वन्दनादि करना नहीं कल्पे । "
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इस विषय में थोड़ासा विचार किया जाता है।
आज जितनी भी प्राचीन और प्राचीन से प्राचीन प्रतियें उपासक दशांग की मिलती हैं, उनमें यह बढ़ाया हुआ (अरिहंत) शब्द है ही नहीं, मेरे जानने में आया है कि जैसलमेर के प्राचीन शास्त्र भंडार में उपासकदशांग की ताड़ पत्र पर लिखी हुई एक प्रति है यह बहुत प्राचीन है इसमें भी " अरिहंत" शब्द नहीं है
१. एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता से प्रकाशित उपासक दशांग सूत्र में तो "अरिहंत चेइयाइं" ये दोनों शब्द नहीं है । इस विषय में इस सूत्र के अनुवादक महोदय प्रो० ए. एफ. रुडोल्फ होर्नल साहब ने एक नोट लिखकर यह बताया है कि - प्राचीन प्रतियों में "अरिहंत" शब्द नहीं है और "चेइयाणि” शब्द यद्यपि प्राचीन पुस्तकों में है तथापि यह शब्द भी टीका से लेकर मूल में मिलाया हुआ पाया जाता है।
२. श्वे० मूर्ति पूजक समाज के समर्थ विद्वान् पं० बेचरदासजी दोसी ने “भगवान् महावीर ना दश उपासको" नामक ग्रन्थ गुजराती भाषा में लिखा है (जो उपासक दशांग का अनुवाद है) उसमें
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