Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
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१०५.
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मनुष्य को दिया जाता है। मूर्ति से तो इन बातों का सम्बन्ध ही नहीं है। हाँ यदि इसमें धूप, दीप, नैवेद्य, पत्र, फल-फूल, जल, अक्षतादि चढ़ाने की बात होती, आरती उतारने की प्रतिज्ञा होती, दर्शन-पूजन का कहा गया होता तब तो विचार को कुछ अवकाश भी होता, किन्तु सूत्र में तो स्पष्ट मनुष्यों के खाने पीने की आवश्यक वस्तुओं और भक्ति का उल्लेख किया गया है, फिर ऐसे स्थल पर प्रकरणानुकूल " साधु" अर्थ नहीं करके मूर्ति अर्थ करने वाले किस प्रकार सुज्ञ कहे जा सकते हैं?
सुन्दर मित्र ने ऐसे उत्तर पर यह भी कुतर्क की है कि "जो साधु जैन से भ्रष्ट होकर अन्य तीर्थी बन गया है वह तो अन्य तीर्थी में गिना जा चुका है फिर उसे पृथक् बताने की क्या आवश्यकता है?" इस विषय में सुन्दरजी को समझाया जाता है कि साधु दो प्रकार के होते हैं, एक तो गृहस्थावस्था से साधु अवस्था में आते हैं, दूसरे किसी समाज के साधुओं में से निकल कर किसी दूसरे समाज के साधुओं में मिल जाते हैं । यहाँ इनकी भिन्नता बताने का कारण भी है । वह यह है कि - जो गृहस्थावस्था से अन्य समाज के साधु बन हैं वे तो स्वाभाविक तौर से अपना काम करते रहते हैं जैन समाज का उनसे अधिक परिचय नहीं होता, अतएव उनके पास स्वभाव से ही आना-जाना नहीं होता है । किन्तु जो जैन साधुत्व से भ्रष्ट होकर अन्य समाज में मिल जाता है उसका साधारण जैन गृहस्थ समुदाय से परिचय भी अधिक रहता है । उस परिचयाधिक्य के कारण कोई जैन गृहस्थ उसके पास जाय तो वो स्वयं गृहस्थ के पास आकर परिचय बढ़ा कर अपना मिथ्या जाल फैलावे तो उससे बचने के लिए यह भिन्न और स्वतंत्र स्थान (वाक्य) रखा गया है और इसका होना भी
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