Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
५२
शाश्वती प्रतिमाएं और सूर्याभदेव
*****************
***
**********
स्पष्ट है कि जिस प्रकार तीर्थंकर वंदन और चारित्र पालन का फल परभव में कल्याणकारी है उसी प्रकार धन रक्षा या मूर्ति पूजा का फल नहीं । यद्यपि सुज्ञ जनों के लिए हमारा इतना समझाना ही पर्याप्त है फिर भी सुन्दरजी की चतुराई को चूर-चूर करने के लिए यहां इन्हीं के अभिमत कुछ प्रमाण दे दिये जाते हैं जिससे किसी को कुछ शङ्का करने की जगह ही न रहे।
सुन्दर मित्र ने मूर्ति पूजा और चारित्र का फल बिलकुल समान ही बताया है, किन्तु सुन्दर संमत ( मूर्ति पूजक) ग्रन्थकार ही इनके उक्त कथन से सर्वथा विरोधी हैं, देखिये निम्न प्रमाण -
" दव्वथओ भावथओ, दव्वथओ बहुगुणत्ति बुद्धि सिआ । अनिउण मइवयणमिणं, छज्जीवहिअं जिणा विंति ॥ १६२ ॥ छज्जीवकाय संजमु दव्वथए सो विरुज्झई कसिणो । तो कसिण संजम विऊ पुप्फाइं न इच्छति ॥ १६३॥ अर्थ - द्रव्यस्तव और भावस्तव यदि ऐसा कहा जाय कि द्रव्य स्तव बहुत गुणवाला है तो यह कथन बुद्धि की अनिपुणता ( बुद्धिमंदता ) ही जाहिर करता है, क्योंकि तीर्थंकर महाराज छह काय जीवों के हित को कहते हैं और छह काय जीवों की रक्षा द्रव्यस्तव में सम्पूर्ण रुद्ध होती है, इसलिए सम्पूर्ण संयम के जानकार मुनि पुष्पादि को नहीं चाहते ।। १६२-१६३ ।।
(आवश्यक हारिभद्रीय चतुर्विंशतिस्तव)
यहाँ आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने द्रव्यस्तव मूर्त्ति पूजा को संयम विरोधिनी बताकर ऐसी प्ररूपणा करने वाले को मंद बुद्धि कहा है 'और देखिये -
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org