Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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दाढ़ा-पूजन ******************************************全书 (सांसारिक) व्यवहार की है। लोकोत्तर (आत्मकल्याण की) नहीं। और जो देवता धर्म समझ कर दाढ़ें ले जाते हों तो वैसे धर्म भी तो कई (ग्राम धर्म, देशधर्म, कुलधर्म आदि) भेदों में विभक्त हैं अतएव इसे आत्म कल्याणकारी धर्म नहीं समझें। यदि देवों ने इस क्रिया में आत्मकल्याणकारी धर्म माना हो तो यह मिथ्या है और देवों में सभी शुद्ध श्रद्धावाले तो होते ही नहीं जैसे मनुष्य लोक में धर्म को अधर्म, अधर्म को धर्म, लौकिक को लोकोत्तर और लोकोत्तर को लौकिक मानने वाले होते हैं, वैसे देवलोक में देव भी होते हैं। जैसे मनुष्यों में कितने ही भोले भाई व्यावहारिक क्रियाओं में भी धर्म मानने लग जाते हैं, वैसे देवलोक में के देव भी तीर्थंकरों की दाढ़ायें पूजने में धर्म मानते हों तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि वृत्तिकार तो यहाँ तक लिखते हैं कि देवता चक्रवर्ती की हड्डियें भी ले जाते हैं देखिये -
__ "आस्तां त्रिजदाराध्यानां तीर्थकृतां योग-भृच्चक्रवर्ति नामपि देवाः सक्थि ग्रहणं कुर्वंतीति।"
___(जम्बूद्वीप प्र० बाबु० पत्र १४५) कहिये यह भी कोई धर्म है? कहाँ तक बताऊँ, टीकाकार ने तो यहाँ तक बता दिया कि चिता की राख तक को विद्याधरादि मनुष्य ले जाते हैं, बताइये यह भी कोई धर्म है या धर्मान्धता? क्या इसे भक्ति का अतिरेक नहीं कह सकते? अवश्य यह अन्ध भक्ति ही है।
यदि देवों की सभी करणी आपके लिए उपादेय है तो आपको चाहिए कि चक्रवर्ती की भी मूर्ति बनाकर पूजें तथा अपने गुरु की हड्डी राख आदि लाकर उसी तरह पूजते रहें।
जिस प्रकार सूत्रों में अनेक स्थानों पर यह वर्णन आया है कि दीक्षित होने वालों के माता पितादि दीक्षा समय में दीक्षितों के
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