Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
७६
रखकर पूज्यपाद अमोलकऋषि जी महाराज ने कोई अनुचित कार्य नहीं किया। हाँ, श्री अमृतचन्दजी तो मूल में पाठान्तर को मिलाने वाले होने से दोषी अवश्य हैं। आप भले ही उनकी प्रशंसा करें, उन्होंने तो ऐसा प्रयत्न किया कि जिससे पाठ और पाठान्तर का पता ही नहीं चल सके, इसलिए न्याय दृष्टि से यह धोखे बाजी है और ऐसी धोखे बाजी की प्रशंसा करने वाले भी...... ___मैं ऊपर बता चुका हूँ कि उववाई सूत्र में सुन्दराकार चैत्य के साथ युवती वेश्याओं के निवास का भी वर्णन आता है, जो मूर्ति पूजक विद्वानों को बहुत खटकता है। इसी का एक प्रमाण यहाँ पाठकों के सामने रखता हूँ।
मूर्ति पूजक समाज की “आक्षेप निवारिणी समिति” की ओर से प्रकाशित होने वाली “जैन सत्य प्रकाश" नामक मासिक पत्रिका में श्री दर्शनविजय जी ने स्था० समाज के खिलाफ एक लेख माला प्रकाशित की थी, जिसका नाम था "जैन मंदिर" इस लेख माला में प्रथम वर्ष के तीसरे अङ्क पृ० ७६ में आपने उववाई सूत्र का पाठ निम्न प्रकार से दिया है।
"आयारवंत चेइय विविह सन्निविट्ठ बहुला"
इस मूल पाठ में से महामना श्री दर्शनविजय जी महाराज “जुवई" शब्द को बिलकुल हड़प कर गये, क्योंकि यह युवती अर्थ को बताने वाला है और इसका तात्पर्य "वेश्याओं" के निवासों से है, ऐसा टीकाकार का मन्तव्य है। ऐसा शब्द और वह भी महात्मा दर्शनविजय जी के मत से जिन मंदिरों के साथ, भला इसे वे कैसे सहन कर सकते हैं? चट से निकाल कर अलग फेंक दिया
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