Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
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के पूर्व भव प्रदेशी राजा के जन्म में की हुई धर्म करणी ( कि जिसके प्रभाव से महान् पापों का नाश कर सूर्याभदेव पने उत्पन्न हुआ है) में मूर्ति पूजा का नाम ही नहीं है, तब उसका विचार वो सूर्याभ पने उत्पन्न होने पर क्यों करने लगा ? यदि एक इसी विषय पर ठंडे हृदय से विचार किया जाय तो सहज ही में यह मालूम हो सकेगा कि सूर्याभ के इन विचारों से धार्मिकता का कोई सम्बन्ध नहीं, पर नूतन परिस्थिति में अपने योग्य आवश्यक कार्य क्षेत्र ढूंढने की भावना है। पूर्व भव की धर्म करणी में मूर्ति पूजा को नाम मात्र भी स्थान नहीं होने से उसको उसके संस्कार भी नहीं है। अतएव सूर्याभ के इस कृत्य को आप ही के श्री हुकुममुनिजी के मन्तव्यानुसार लौकिक कृत्य मानकर मिथ्या हठ को छोड़ देना चाहिये । उभय मान्य आगमों में मूर्त्ति पूजा की कहीं भी प्रभु आज्ञा नहीं है, न किसी प्रामाणिक श्रावक या साधु के जीवन इतिहास में ऐसा उल्लेख है, फिर खाली कथाओं की और वह भी मिथ्या ओट लेने में लाभ ही क्या है?
(३) मूर्ति-पूजा और जिनाज्ञा
उक्त प्रकार से सूर्याभ सम्बन्धी सभी युक्ति व तर्कों पर विचार करने के पश्चात् हम यह भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि
यदि थोड़ी देर के लिए हमारे सुन्दर मित्र के कथनानुसार देवलोक स्थित प्रतिमाओं को तीर्थंकर प्रतिमायें भी मानलें तब भी किसी प्रकार की बाधा नहीं है, क्योंकि यह तो अखिल जैन समाज की मान्यता है कि अन्य कलाओं की तरह चित्रकला भी अनादि है और चित्रकार अपनी या अन्य की इच्छित वस्तु का चित्र बना सकता है, इसी तरह तीर्थंकर प्रभु की भी मूर्ति बनाली जा सकती
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