Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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प्रवेश ************术学李李李李李安求实学家辛次次学术安客家**本学 अपनी मान्यतानुसार जला दिया जाता, अथवा भूमि में गाड़ दिया जाता, या पानी में बहा दिया जाता है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि यदि व्यक्ति की मूर्ति (आकृति) पूजना ही धर्म होता तो उनके शरीर को जिसमें कि रहकर वे पूज्य हुए थे, क्यों नष्ट किया जाता? पाषाण की मूर्ति से तो शव ठीक ही है, क्योंकि पहले उसमें गुण विद्यमान थे। अतएव सिद्ध हुआ कि मूर्ति पूजा आत्मकल्याण में अनावश्यक है। आदरणीय केवल गुण ही हैं। गुण के धारक महान् सर्वज्ञ पुरुष ही हमारे देव हैं। साधुत्व सम्बन्धी उत्तम गुणों के धारक महात्मा ही हमारे गुरु हैं। वीतराग प्रभु ने हमारे लिये जो कल्याणकारी मार्ग बताया है, उसका अनुसरण करना ही हमारा धर्म है और ऐसे देव की भक्ति और बहुमान पूर्वक आज्ञा पालन करना ही सच्ची देव पूजा है और यही कल्याणकारी मार्ग है। स्वयं मूर्ति पूजक श्री विजयानन्द सूरिजी "जैनतत्त्वादर्श' पृ० ४१६ में लिखते हैं कि - "इहाँ सर्व जो भाव पूजा है सो जिनाज्ञा का पालना है।" __अतएव जिनाज्ञा पालन रूप प्रभु पूजा ही मोक्ष दायिनी है, मूर्ति-पूजा नहीं। मूर्ति-पूजा तो उल्टी पुद्गलों की अभिवृद्धि और आसक्ति बढ़ाकर भव भ्रमण कराने वाली हेय (त्यागने योग्य) वस्तु है।
- विश्वभर के षट् नित्य द्रव्यों में पांच द्रव्य अरूपी और एक पुद्गल नामक द्रव्य रूपी है। यद्यपि छहों द्रव्यों में प्रधानता जीव द्रव्य की है, तथापि अरूपी हल्का और ऊर्ध्वगामी इस प्रधान जीव द्रव्य को जड़ और पुद्गल ने अपनी ओर आकर्षित कर, उस पर अपना प्रभाव जमाकर उसे भारी और पतन की ओर बढ़ने वाला बना दिया है। इस तरह प्रधान और अनन्त शक्तिशाली होते हुए भी यह
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