Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
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(ई) पूजन-विधि ___ तीर्थंकर प्रभु पूर्ण त्यागी महापुरुष हैं, वे सचित्त तो ठीक पर अनावश्यक अचित्त वस्तु को भी नहीं छूते, उनकी पूजा मन वचन और शरीर से ही होती है, यदि कोई उन्हें अचित्त पानी से स्नान कराना चाहे, अक्षत चढ़ावें, द्रव्य भेंट करें, आभूषण पहिनाने का प्रयत्न करे तो वे कभी भी स्वीकार नहीं करते। यदि कोई अनजान होने से इस प्रकार की भक्ति करना चाहे तो वे उसे रोकते हैं। प्रभु स्वयं इस प्रकार की पूजा स्वीकार नहीं करते थे और उन जगदुपकारी प्रभु ने अपने साधु साध्वियों को किसी भी प्रकार की सचित्त वस्तु के छूने को मना किया है। यदि सुसाधुओं से अनजान अपने में ऐसा हो जाय तो मालूम होने पर वे प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होते हैं, जब शरीरधारी और साक्षात् प्रभु ही इस प्रकार की पूजा को स्वीकार नहीं करते, तो उनकी मूर्ति को तो ऐसी पूजा की जरूरत ही क्या? यदि शरीरधारी साधु जङ्गल में हों और प्यास के मारे उनके प्राण सुख रहे हों, तब भी वे प्राण देना स्वीकार कर लेंगे पर पास के सचित्त पानी से भरे हुए जलाशय से पानी नहीं लेंगे, ऐसी हालत में अचेतन-जड़-ऐसी तीर्थंकर मूर्ति के लिए तो ऐसी पूजा उचित हो कैसे हो? और सूर्याभ ने तो सरागी देवों की मूर्ति की तरह जल, फूल, अक्षत, धूप आदि से आरम्भ वर्द्धक पूजा की है, अतएव ये मूर्तियें तीर्थंकर की नहीं होनी चाहिये।
यदि आप वर्तमान की तीर्थंकर मूर्ति की पूजा का उदाहरण देकर उन मूर्तियों को तीर्थंकर मूर्तिये कहें, तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि यह तो आपने शायद इसी कथानक का अनुकरण किया है। क्योंकि आप अपनी पूजा पद्धति में इन्हीं का प्रमाण देते हैं, इसलिये आपका कथन अनुचित और हमारी युक्ति न्याय सङ्गत है।
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