Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा **** *************************学学**
१. सुन्दर मित्र ने लिखा है कि "वे मूर्तियें पद्मासन से ध्यान लगाकर बैठी है अतएव ऐसी प्रतिमायें सिवाय तीर्थंकर के अन्य की नहीं हो सकती।" इस विषय में हमारा समाधान यह है कि सूत्र में कहीं भी नहीं लिखा कि “वे मूर्तिये ध्यानस्थ कायोत्सर्ग मुद्रा से बैठी है, सूत्र में तो सिर्फ पर्यङ्कासन से बैठने का ही वर्णन है, फिर बिना किसी आधार के सुन्दर मित्रजी ने “ध्यान लगाकर बैठी' ऐसा कैसे लिख मारा?
दूसरी बात यह है कि आज भी अजैन मूर्तियें पर्यङ्कासन से बैठी हुई कई स्थानों पर मिलती है, वैष्णवों के कई मन्दिरों के ऊपर पर्यङ्कासन से उनके ऋषियों की मूर्तिये बैठी दिखाई देती है, इतना ही नहीं अजमेर के म्युजियम में तो एक प्राचीन बुद्ध मूर्ति पर्यङ्कासन से
और वह भी कायोत्सर्ग मुद्रा से बैठी हुई है। फिर सुन्दरजी केवल पर्यंङ्कासन शब्द से ही उसे अर्हत् मूर्ति मान ले, और अपनी ओर से उसे ध्यान लगाकर बैठी हुई (पृ० ४६) बता दें, यह प्रत्यक्ष मत मोह नहीं तो क्या है?
२. दूसरी युक्ति “नमुत्थुणं' विषयक है, इस विषय में यह समाधान है कि सूर्याभ ने मूर्ति की नमुत्थुणं से स्तुति नहीं की। प्रतिमा की स्तुति तो उसने १०८ गाथाओं द्वारा ही की, और फिर उस स्थान से ७-८ पांव पीछे हटकर नमुत्थुणं कहा, देखिये वह मूल पाठ :
"अट्ठसय विसुद्धगन्थजुत्तेहिं अत्थजुत्तेहिं अपुणरुत्तेहिं महावित्तेहिं संथुणइ संथुणित्ता सत्तट्ठपयाई पच्चोसक्कइ पच्चोसक्कित्ता" आदि।
स्पष्ट हुआ कि सूर्याभ ने मूर्ति की १०८ गाथाओं से स्तुति की और फिर वहाँ से पीछे हटकर बाद में "नमुत्थुणं' कहा, इससे यह
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