Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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साक्षात् और मूर्त्ति में अन्तर
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महात्मा धर्मोपदेश देते हुए दिखाई देते हैं। यह स्पष्ट रूप से भाव स्वरूप है।
यदि कोई कहे कि देखी हुई वस्तु तो सरलता से स्मरण की जा सकती है किन्तु बिना देखी वस्तु की कल्पना करना असम्भव होता है इसलिए उसकी स्थापना होना आवश्यक है तो यह कथन भी ठीक नहीं, क्योंकि जिस प्रकार बिना देखे ही कल्पना के आधार पर मूर्त्तियें बनाई गई हैं ( क्योंकि तीर्थंकरों का फोटू खींचकर उससे मूर्त्तियें बनाई गई हों, यह बात तो है ही नहीं) उसी प्रकार शास्त्रों से तीर्थंकरों के देह और गुणों का वर्णन जानकर उसका चिंतन किया जा सकता है। इस प्रकार भावों से किया हुआ चिंतन भी भाव देव की भक्ति में ही सम्मिलित है। इसलिये साक्षात् भाव निक्षेप प्रभु की कल्पना कर स्तुति करना भी भाव स्वरूप ही है। ऐसे सरल और भाव प्रदर्शक विषय को स्थापना में घसीट ले जाना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता ।
श्रीमान् सुन्दरजी कहते हैं कि "तुम कल्पना करते हो, हम मूर्ति बनाकर पूजते हैं। इसमें अधिक क्या हुआ ?" दया आती है इस बाल चेष्टा पर, आप इतना भी नहीं समझ सके कि भावों द्वारा भक्ति और स्थापना - मूर्त्ति पूजन में आकाश पाताल का सा अन्तर है। एक है शुद्ध प्रकाश, तो दूसरा है गाढ़ अन्धकार । एक में निरवद्य भक्ति होकर आत्मा हल्की होती है, तो दूसरे में व्यर्थ ही प्राणियों की हिंसा व पूज्य की आज्ञा भङ्ग रूप अपमान होकर आत्मा भारी होती है। भावरूपी भक्ति में किसी भी बाह्य वस्तु की अपेक्षा नहीं रहती, शुद्ध तन-मन से की जाती है, तब मूर्त्ति पूजा में अगणित त्रस और स्थावर जीवों की हत्या, व्यर्थ का द्रव्य व्यय और मिथ्या पाखंड रहता है ।
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