Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ************* ** ********* * * *****
सर्वज्ञः सुगतो बुद्धो धर्मराज स्तथागतः । समन्तभद्रो भगवान्मारजिल्लोक जिजिनः ।
(अमरकोश) इसके सिवाय नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव-भेद से भी जिन चार प्रकार के हैं।
कोशकार भी शब्दों के वही अर्थ देते हैं जिनका प्रयोग होता हो, या हुआ हो, बिना प्रयोग किये हुए अर्थ को वे देते ही नहीं। साहित्य में 'जिन' शब्द को 'अर्हत्' 'केवली' के सिवाय 'बुद्ध' 'विष्णु' (या नारायण) कंदर्प आदि अर्थों में भी लिया है अतः कोषकारों ने भी वे अर्थ किये हैं। इसलिए जिन शब्द का अर्थ केवल तीर्थंकर ही मानना उचित नहीं, किसी भी शब्द का अर्थ प्रकरण के भावों के अनुकूल किया जाए तो अनर्थ नहीं होता, नहीं तो महान् अनर्थ हो जाता है।
प्रस्तुत विषय में वे जिन प्रतिमायें तीर्थंकर प्रतिमा नहीं मानी जाती, क्योंकि -
(अ) वे शाश्वत हैं। (आ) उनके नेत्रों में लाल रेखायें हैं। (इ) उन्हें वस्त्र धारण कराये गये हैं। (ई) पूजन विधि सरागी देव जैसी है। (उ) शरीर वर्णन उल्टा है। (ऊ) आसपास की मूर्तियें भी साधु साध्वी की नहीं हैं। (ए) निर्धारित चार ही नाम दिये हैं। उक्त कारणों पर विस्तृत विचार किया जाता है -
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