Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
२७ *****事*老***********京专家学会学李***************学学 का झगड़ा तो है ही नहीं। हम भी साकार तीर्थंकर प्रभु को ईश्वर मानते हैं। फिर व्यर्थ कागज काला करके सुंदरजी ने क्या लाभ उठाया? - सुंदर बुद्धि का एक चमत्कार और देखिये - आप अपने उक्त लेख में साकार तीर्थंकर को ही निराकार मानते हैं इसीसे आप निराकार की चर्चा करते-करते साकार में आ पड़े।
इसके सिवाय सुंदर मित्र स्थापना और भाव का स्वरूप भी कदाचित् नहीं जानते होंगे? इसीसे ऐसी व्यर्थ की युक्ति लगा बैठे। क्योंकि स्थापना, मिट्टी, काष्ट, पाषाण, धातु, कागज और ऐसे ही . अन्य पदार्थों से बनाई जाती है, किन्तु कल्पना किसी वस्तु से नहीं बनाई जाती। साक्षात् तीर्थंकर प्रभु भाव स्वरूप हैं। उसी तरह साक्षात् की कल्पना-विचार-या भावना भी भाव स्वरूप ही है। स्थापना नहीं, क्योंकि इसका सम्बन्ध भाव से हैं। जिसका भावों से सम्बन्ध हो वह स्थापना नहीं हो सकती। यहाँ भावों से विचार करने वाला व्यक्ति अपने भावों में तीर्थंकर के भावों-गुणों का चिन्तन करता हुआ भाव-आराधना करता है। ऐसी सरल बात को भी तोड़मरोड़कर उल्टी पद्धति से जनता को दिखाना एक प्रकार से धोखा
देना है।
_ विचार करो कि किसी व्यक्ति ने श्री सुंदरजी को देखे हैं और उसका उनमें अनुराग भी है। कालान्तर में सुंदरजी की अनुपस्थिति में जब वह सुंदरजी को याद करेगा तब उसकी दृष्टि में इनकी आकृति दिखाई देगी तो क्या वह आकृति मात्र स्थापना निक्षेप में होगी? __मैंने अपने गुरुवर्य को धर्मोपदेश देते हुए देखे थे, अब जब कभी मुझे उनका स्मरण होता है, तब मेरी आँखों में वह सौम्य वदन
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