Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्त्ति पूजा
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सेवन विश्व व्यापक है। किन्तु सुन्दर सिद्धान्तानुसार विश्व व्यापकता के नाते यह भी उपादेय समझना चाहिए ? यहाँ तो सुन्दर मित्र भीतर से नहीं तो (?) ऊपर से तो जरूर कहेंगे कि नहीं, यह तो विश्व व्यापक होते हुए भी अनुपादेय - हेय - ही है । फिर विश्व व्यापकता की झूठी दुहाई देकर मूर्ति पूजा कैसे सिद्ध कर सकते हैं?
महाशय ! आप स्वयं आगे चलकर क्या लिखते हैं, क्या इसका भी आपको भान है ? देखिये आपने ही इसी पोथे के पृ० २८६ में लिखा है कि -
" जन संख्या अधिक होने से ही किसी मत की सत्यता नहीं कही जाती है। यदि ऐसा ही है तो मुसलमान धर्म को भी आपको सत्य मानना पड़ेगा, क्योंकि उसको तीस करोड़ मनुष्य मानते हैं। "
कहिये मित्र ! आप ही के लेख से आप ही के सिद्धान्त का चकनाचूर हो गया न? और विश्व व्यापकता की मिथ्या ओट से मूर्त्ति पूजा की उपादेयता धूल में मिल गई न ? कहना नहीं होगा कि यद्यपि सुन्दर मित्र ने मूर्ति - पूजा के विश्व व्यापक होने की झूठी बात लिखी है, तथापि इन्हीं की दूसरी दलील से ये स्वयं असत्य भाषी ठहर चुके ।
आश्चर्य तो यह है कि ऐसी लचर दलीलों पर से ही सुन्दर मित्र कहते हैं कि "मूर्ति को नहीं मानना प्रकृति का खून करना है" समझ में नहीं आता कि सुन्दर मित्र ने ये वाक्य किस आशय से लिखें हैं। वैसे तो जैन मात्र प्रकृति का खून करना ही चाहेगा हम भी यही चाहते हैं कि शीघ्र ही जड़ प्रकृति का खून ( नाश) कर - “विहयरयमला” बन जावें । बिना आठ कर्म की विविध प्रकृतियों
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