Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा
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गुरु कहते हैं कि हे शिष्य! जिन-आज्ञा से बाहर की करणी में उद्यम और जिन आज्ञा में आलस्य, यह तुझे न होना चाहिए ऐसा तीर्थंकर का अभिप्राय है। (आचारांग अ० ५ उद्देशक ६ सूत्र प्रारम्भ)
___ इस प्रकार जिनागमों में विश्व कल्याण की कामना वाले गणधर महाराज ने सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग प्रभु की आज्ञा पालन करने का आदेश किया है। प्रभु आज्ञा का पालन कर अनन्त जीव सिद्ध बुद्ध हो चुके हैं। भविष्य में जिनाज्ञा पालन कर अनन्त जीव भव भ्रमण का नाशकर नित्य और शाश्वत सुखों को प्राप्त करेंगे। श्री सुन्दर मित्र भी हमारी इस बात को स्वीकार करते हुए अपने “मेझरनामे' में लिखते हैं कि -
धर्म आज्ञा वीतरागनी, आज्ञा लोपी हो करे गणी धर्म आचारांगपहेला अङ्गमां, नहीं जाण्योहो? तेणे धर्म नो मर्म|| १०॥
(ढाल १३ पृ० ४५) (२) "सूत्र सूयगडांग मां कयुं, आज्ञा बाहर हो? बंधु आल पंपाल।"
(ढाल २५ पृ० ७६) (३) "जिन आणा विराधतांरुले अनन्त संसार। आणा आराधी जे हुआ, शिवरमणी भरतार"॥१॥
(ढाल ३० का दोहा पृ०६८) (४) "धर्म छे ते वीतरागनी आज्ञा मांछे अने आज्ञा थी न्यूनाधिक करवू ते तो अधर्मज छ।"
(ढाल २२ के तात्पर्य में पृ० ६९) उक्त चार अवतरण स्वयं सुन्दर मित्र के मेझरनामे के हैं। इसके सिवाय श्री विजयानन्द सूरिजी ने सम्यक्त्व शल्योद्धार के ३७ वें
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