Book Title: Jainagama viruddha Murtipooja
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जैनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ******************************************** होने से पुद्गलों से विरक्त ही कहे जाते हैं। ऐसे महात्मा यह ध्यान में रखते हैं कि जिस प्रकार रोगी मनुष्य स्वास्थ्य लाभ करने के लिए अप्रिय व कटु औषधि का उपयोग करता है, किन्तु स्वास्थ्य लाभ कर लेने पर औषधि की तरफ देखता भी नहीं। ठीक इसी प्रकार साधक महात्मा भी कर्म बन्ध रूप रोग से मुक्त होने और ज्ञानादि रत्नत्रय की आराधना के लिए औषधि की तरह आहारादि बाह्य वस्तुओं का सेवन करते हैं और भावना रखते हैं कि वह दिन कब आयगा कि मैं आहारादि बाह्य वस्तुओं के त्याग पूर्वक इस शरीर को शव की तरह डाल दूंगा और आत्म ध्यान में लीन होता हुआ कल्याण साध लूँगा, तथा अपनी आत्मा को इन पुद्गलों से एकदम भिन्न कर शुद्ध, स्वच्छ, निर्मल एवं स्वतन्त्र बना लूंगा। ___इसके सिवाय धात्री-माता (धाय) का उदाहरण भी इस बात को स्पष्ट करता है। जिस प्रकार धात्री-माता (धाय) दूसरे के पुत्र को खिलाती पिलाती हुई पुत्र की तरह पालन करती है और मन में जानती है कि यह पुत्र मेरा नहीं है। मुझे आजीविका के लिए ही ऐसा करना पड़ता है। इसी प्रकार महात्मा पुरुष भी आहार, पानी और वस्त्रादि से शरीर की रक्षा करते हैं। फिर भी वे जानते हैं कि हमारी आहारादि द्वारा शरीर रक्षा केवल तन को टिकाकर ज्ञानादि रत्नत्रय की विशेष आराधना के लिए ही है। हमारा मुख्य ध्येय तो आत्मोत्थान ही है, खान पान आदि नहीं। अतएव सिद्ध हुआ कि आवश्यक आहार आदि का सेवन भी निर्मम बुद्धि से करना योग्य है। इस प्रकार आसक्ति रहित सेवन करने वाले को पुद्गल से अलिप्त कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है, अर्थात् ऐसे महात्मा को पुद्गल से भिन्न कहना ही उचित है। इसलिए उक्त शङ्का को स्थान ही नहीं है।
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