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दोनो पत्रो से सहयोग नहीं मिल सका है। इस सम्बन्ध मे एक सभावना तो यह है कि इन पत्रो के मालिको ने जैनतत्त्वमीमासा से होने वाले दुष्परिणाम को गभीरता से नही समझा है। दूसरे यह भी कहा जा सकता है कि जनतत्त्वमीमासा की मीमासा के प्रकाशन को इन्होने अपने पत्रो के लिये आर्थिक घाटे का कारण समझ लिया हो । जैन-सदेश के विपय मे तो यह भी सोचा जा सकता है कि इसके एक सपादक प० जगन्मोहनलालजी शास्त्री का समर्थन जैनतत्त्वमीमासा को प्राप्त है अत वे स्वाभाविक रूप से अपने पत्र मे जैनतत्त्वमीमासा के प्रतिकुल कुछ भी प्रकाशित करना नही चाहेगे।
४-मुझे यह भी मालूम पडा है कि जनतत्त्वमीमासा की मीमासा करने मे बहत से विद्वान सचेष्ट है जो यद्यपि प्रसन्नता की बात है, परन्तु इतना अवश्य है कि प्रत्येक लेखक को यह वात ध्यान मे रखनी चाहिये कि उसको अपने लेखन कार्य मे तत्त्वविमर्श की दृष्टि रखना ही उपयोगी होगा क्योकि यदि कोई लेखक तत्त्वविमर्श की दृष्टि को ओझल करके व्यक्तिगत समालोचना मे भटक गया अथवा भाषा की उग्रता को अपनाया तो इससे लाभ के बजाय हानि होने की ही सभावना रहेगी।
___ मुझे विश्वास है कि तत्त्वविमर्श की दृष्टि से लिखे गये ठोस तात्विक लेख अवश्य ही प० फूलचन्द्रजी का मार्गदर्शन करेंगे।