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श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ ।
एक पारस-पुरुष का गरिमामय जीवन : १६ :
"यह स्थान तो आपको अवश्य पसन्द आया होगा । यदि साधु बनने की हठ छोड़ दो तो यहाँ से मुकि मिल सकती है।"
चौथमलजी ने विचार किया--'यहाँ रहकर न सत्संगति मिल सकती है और न साधु-जनों की सेवा का सुयोग । यहाँ रहकर न तो विशिष्ट ज्ञान प्राप्त कर सकेंगा और न साधु ही बन सकंगा । यहाँ से निकलने के बाद ही दीक्षा के लिए प्रयास किया जा सकता है ।' अपनी व्यावहारिक बुद्धि का प्रयोग करते हुए उन्होंने ससुर साहब के विचारों से सहमति व्यक्त कर दी। ससुरजी का नियन्त्रण
पूनमचन्द जी को इतनी शीघ्र सहमति की आशा न थी। इस सहज सहमति ने उन्हें सशंकित कर दिया। उनकी अनुभवी आँखों ने इस सहमति को रहस्यमयी माना । उन्होंने सोचा---'माता और पुत्र दोनों ही दीक्षा के लिए कटिबद्ध हैं। कहीं चिड़िया हाथ से बिल्कुल ही न निकल जाय ।' उन्होंने अपना नियन्त्रण कठोर करने का निश्चय कर लिया और माता-पुत्र दोनों को समझा-बुझा कर अपने साथ अपने ग्राम धम्मोत्तर (प्रतापगढ़) ले आए । अब उन्होंने अपना नियन्त्रण पक्का समझा । एक दिन गर्व में भरकर केसरबाई से बोले
“समधिनजी ! अपने पुत्र को समझा दीजिए कि साधु बनने की बात दिमाग से निकाल दे। उसे साधु बनाने का प्रयास आप भी न करें वरना याद रखिए मेरा नाम पूनमचन्द है।"
पूनमचन्दजी ने सोचा था कि केसरबाई विधवा है और इस समय मेरी निगरानी में है। दब जायगी। लेकिन सिंहनी हाथियों के समूह से घिर जाने पर भी घबराती नहीं वरन् उसका शौर्य और भी अधिक प्रदीप्त हो उठता है। यही दशा वीरमाता केसरबाई की हुई । पुत्र को हवालात में रखे जाने से वह भरो तो बैठी ही थी। कड़क कर बोली
__"समधीजी ! होनी टलती नहीं, होकर रहती है। यदि मेरे पुत्र को साधु बनना है तो बनेगा ही, उसे कौन रोक सकता है। रही आपके पूनमचन्द होने की बात, तो मेरा नाम भी केसरबाई है। पूनम के चाँद को अमावस्या का चाँद बना दूंगी।"
पूनमचन्दजी को ऐसा उत्तर मिलने की आशा नहीं थी। वे सहम गये । आगे कुछ भी न कह सके । उनका गर्वोन्नत मुख लटक गया । बात यहीं समाप्त हो गई।
अब केसरबाई को भी पूनमचन्दजी का गर्व खल गया। वह अपने पुत्र की वैराग्य भावना को और दृढ़ करती रही। शीलवती रंगूजी की घटना
एक बार माता-पुत्र दोनों धम्मोत्तर की एक गली में होकर जा रहे थे। मार्ग में एक मकान को देखकर पुत्र ने पूछा
"माताजी ! यह मकान किसका है ?" मां ने बतलाया
यह मकान शीलवती रंगूजी का है। यहाँ उनकी ससुराल थी। वे बाल विधवा हो गई थीं। विधवा होते ही उनका चित्त धर्म में रम गया। वे प्रातः सामायिक-प्रतिक्रमण करती, स्वाध्याय करतीं, साधु-साध्वियों के प्रवचन सुनतीं, मुक्तहस्त होकर दान देतीं, दोपहर को फिर धार्मिक ग्रन्थ पढ़तीं, सन्ध्याकालीन सामायिक प्रतिक्रमण करतीं, रात्रि को नवकार मंत्र गिनतीयों उनका जीवन धर्म को समर्पित था।
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