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व्यर्थं क्यों खोते हैं? उन्होंने कहा, तुम्हें इससे क्या ? जब तुम हमें दे चुके हो, तो हम कुछ भी करें । जो ऐसा नहीं है, तो ले जाओ अपने गुरुको वापिस दे देना, हमको नहीं चाहिये | चेला बड़ी चिन्तामें पड़ा । अन्तमें यह सोचकर कि "रस वापिस ले जाऊंगा, तो गुरुजी अप्रसन्न होंगे जब इन्हें दिया जा चुका है, तो ये चाहे जो करें मुझे इससे क्या ? इनका भाग्य ही ऐसा है, जो यह मूर्खता सूझी है" चेला रस पत्थरपर डालकर अपने गुरुके पास लौट गया । जाके सब समाचार कहे । सुनकर भर्तृहरिको बहुत दुःख हुआ । परन्तु यह विचार करके कि शायद इस चेलाने उनसे रसका गुण यथार्थ नहीं कहा होगा, इससे उन्होंने रस फिंकवा दिया होगा; वे अपने अनेक चलोंको लेकर स्वयं शुभचन्द्रजी से मिलनेको चले । साथमें बचा हुआ आधी तुंबी रस भी ले लिया । वहां पहुँचकर श्री शुभचन्द्रमुनिको बड़ी नम्रतासे नमस्कार कर कुशलप्रश्न किया । पश्चात्, वह रसतुंची मेंट स्वरूप आगे रख दी । मुनिने पूछा, इसमें क्या है ?
भर्तृहरि - इसमें रस-भेदी रस है । इसके स्पर्शसे तांचा सुवर्ण हो जाता है - वडे, परिश्रम से यह प्राप्त हुआ है ।
शुभचन्द्र--( तुंबीको पत्थरकी शिलापर मारके ) भाई, यह पत्थर तो सुवर्णका नहीं हुआ ! इसका गुण पत्थर लगने से कहां भाग गया ?
भर्तृहरि - ( विरक्त होकर ) यह आपने क्या किया ? मेरी वारह वर्षकी कमाईको आपने नष्ट कर दी । मै ऐसा जानता, तो आपके पास नहीं आता । तुंबीको फोड़कर आपने बुद्धिमानीका कार्य नहीं किया है। भला, आप अपनी भी तो कुछ कला दिखाइये कि इतने दिनों में क्या सिद्धि प्राप्त की है ?
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शुभचन्द्र - भैया, क्या तुम्हें अपने रसके नष्ट होनेका इतना रंज हुआ है ? भला, इस सुवर्णके कमानेकी ही इच्छा थीं, तो घर द्वार किस लिये छोडा था ? क्या वहां सुवर्ण रत्नोंकी न्यूनता थी । अरे मूर्ख, क्या इस सांसारिक दुःखकी निर्वृत्ति इन मंत्र मंत्रों अथवा रसोंसे हो जावेगी ? तेरा ज्ञान कहां चला गया, जो एक जरासे रसके लिये विवाद करके मेरी कला जानना चाहता है । मुझमें न कोई कला है, और न जादू है । तो भी तपमें वह शक्ति है कि मेरे अशुचिकी धारसे यह पर्वत सुवर्णमय हो सकता है ।
इतना कहकर शुभचन्द्र ने अपने परैके नीचेकी थोड़ीसी धूल उठाकर पासमें पडी हुई उसी शिलापर डाल दी । डालते ही वह विशाल शिला सुवर्णमय हो गई। यह देखकर भर्तृहरि अवाक् हो गये । चरणोंपर गिरके बोले, भगवन्, क्षमा कीजिये । अपनी मूर्खतासे आपका माहात्म्य न जानकर मैंने यह अपराध किया है। सचमुच मैंने इन मंत्रविद्याओं में फँसकर अपना इतना समय व्यर्थ ही खो दिया और पापोपार्जन किये । अव कृपा करके मुझे यह लोकोत्तर दीक्षा देकर अपने समान बना लीजिये, जिसमें इस दुःखमय संसारसे हमेशा के लिये मुक्त होनेका प्रयत्न कर सकूं ।
भर्तृहरिको इस प्रकार उपशान्तचित्त देखकर श्रीशुभचन्द्रमुनिने विस्तृतरीतिसे धर्मोपदेश दिया । सप्ततत्त्व नवपदार्थोंका वर्णन करके उ. के हृदयके कपाट खोल दिये । तब भर्तृहरि उसी समय उनके समीप दीक्षा लेकर दिगम्बर हो गये । इसके पश्चात्, भगवान् शुभचन्द्र ने उन्हें मुनि मार्ग दृढ होने के लिये तथा योगका अध्ययन करानेके लिये ज्ञानार्णव (योगप्रदीप ) ग्रन्थकी रचना की, जिसे पढ़कर भर्तृहरि परमयोगी हो गये ।
भट्टारक विश्वभूषणकृत भक्तामरचरित्रकी पीठिका में शुभचन्द्रजीके विषयमें उक्त कथा मिलती १ उन्नयिनी के पास एक भर्तृहरि नामकी गुफा है। कहते हैं भर्तृहरिने उसी गुफा में घोर तपस्या की थी ।