Book Title: Gyanarnava
Author(s): Pannalal Baklival
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 18
________________ १२ कुंमारोंने कहा, तात, यह कृत्य हमलोगोंके करने योग्य नहीं हैं। वे हमारे आपके समान ही पूज्य पितृव्य हैं । हम उन्हें मारकर अपयशकी गठड़ी अपने सिर नहीं रखना चाहते और कितनेस जीवनके लिय यह कृत्य करें ? उन्हें उनके पापोंका बदला स्वयं मिल जायेगा | हम उसका प्रयत्न करके आपको दोषी क्यों बनायें ? वे शायद अपनेको अमर समझते हैं, परन्तु हम इस शरीर को क्षणस्थायी माननेवाले हैं। इसलिये अब हम सब झंझटों से मुक्त होकर इस शरीर से कुछ आत्मकृत्य करना चाहते हैं । संसारमै कोई किसीका नहीं है, सब अपने अपने मतलब के सगे हैं। यह बुद्धिमान्, पुरुषोंके सेवन करने योग्य नहीं है । इत्यादि विचार प्रगट करके दोनों भाई वहांसे चल दिये । पिता स्नेहार्द्र नेत्रोंसे उन्हें देखते ही रह गये । 1 महामति शुभचन्द्रने किसी वनमें जाकर एक मुनिराजके निकट जिनदीक्षा ले ली और तेरह प्रकार के चारित्रका पालन करते हुए उन्होंने घोर तप करना प्रारंभ किया, परन्तु भर्तृहरिने एक कौल (तंत्रवादी) तपस्वी के निकट जाकर उसकी सेवामें मन लगाया । उसकी दीक्षा ले ली। जटा रख ली, शरीरमें भस्म रमा ली, कमंडलु चीमटा ले लिया और कंदमूलसे उदरपोषणा प्रारंभ कर दी । एक जंगलमें भूलकर वे एक स्थान में पहुंचे, जहां एक योगी समाधि लगाये हुए पंचामि तप रहा था । उसे विशेषज्ञ जानकर इन्होंने चेला बनने की प्रार्थना की। उसने यह जानकर कि यह एक राजपुत्र है, चेला बना लिया और कहा, मेरे पास बहुत सी विद्यायें हैं, तुम्हें जो चाहिये, प्रसन्नता से सीखो । तबसे ये उसी के पास रहने लगे और अपनी सेवासे प्रसन्नकर उससे विद्या सीखने लगे । बारह वर्ष रहकर भर्तृहरिने बहुत सी विद्या मंत्र यंत्र तंत्र सीखकर वहां से चलनेका मानस किया । तत्र योगीने एक सतविद्या और रसतुंबी देकर जिस रसके संसर्गसे तांबा सुवर्ण हो जाता था, जाने की आज्ञा दे दी । भर्तृहरि प्रणाम करके बहांसे चल दिये और एक स्वतंत्र स्थानमें आसन जमा कर रहने लगे। वहां उनके सैकड़ों शिष्य हो गये और तनमनसे सेवा करने लगे । रसतुंबीके प्रभावसे वहां उन्हें सब प्रकार के सुख सुलभ हो गये । एक दिन उन्हें अपने भाईकी चिन्ता हुई कि वे कहां रहते हैं और किस प्रकार सुख दुःखसे अपना जीवन निर्वाह करते हैं । इसलिये अपने एक शिष्यको उन्होंने शुभचन्द्रकी खबर लाने के लिये भेजा । वह शिष्य अनेक जंगलोंकी राख छानता हुआ वहां पहुंचा, जहां श्रीशुभचन्द्र मुनि तपस्या करते थे । देखा, उनके शरीर में एक अंगुलभर बस भी नहीं है और कमंडलुके सिवा कुछ भी परिग्रह नहीं है । शिष्यजी दो दिन रहे, सो दो उपवास करना पड़े। वहां कौन पूछने वाला था कि, भाई, तुम भोजन करोगे या नहीं । आखिर तीसरे दिन प्रणाम करके वे वहांसे चले आये । अपने 1 गुरुदेवसे आकर कहा, महाराज, आपके भाई बड़े कष्ट में हैं और तो क्या चार अंगुल लंगोटी भी उनके पास नहीं है । खाने पीनेके लिये कुछ प्रबंध नहीं है । मैं स्वयं वहां दो उपवास करके आया हूं | आपको चाहिये कि उन्हें कुछ सहायता पहुंचावे; जिसमें वे उक्त हो जावें । यह सुनकर भर्तृहरिको बहुत दुःख हुआ । उन्होंने उसी समय दूसरी तुंबी में करके उसी शिष्यको दिया और कहा, भाईको यह दे देना और कहना कि अब इस रससे मनोबांछित सुवर्ण तयार करके दारिद्र्यसे मुक्त हो जाओ और सुख चैन से रहो । चेला तत्काल ही वहांको रवाना हो गया । मुनिराज शुभचन्द्र के समीप जाकर उसने रसतुम्बी समर्पण की और उसका गुण वर्णन करके भाई का संदेशा कह सुनाया। मुनिराजने कहा, अच्छा, इसे पत्थरपर डाल दो । शिष्य आश्चर्यचकित हो वोला महाराज, यह क्या ? ऐसी अपूर्व वस्तुको आप यों ही घोर दारिद्र्यसे मुक्त वीमेंसे आधा रस

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