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क्यों होता था क्योंकि उन्हें शुरू से ही परवशता अच्छी नहीं लगती थी। बुद्धि इतनी हाइपर थी जो आवरण वाली थी इसलिए फिर ऐसी कुछ शरारत किए बगैर रहते ही नहीं थे।
बड़ी मुश्किल से पढ़ाई के लिए क्लास में बैठते थे। स्कूल की पढ़ाई नहीं आती थी। उसमें एकाग्रता नहीं हो पाती थी जबकि दूसरी तरफ हर एक तरफ का ज़बरदस्त कॉमनसेन्स था। इससे उन्हें खुद को समझ में आया कि पढ़ाई एक ही तरफ की लाइन है, और वह पूरी नहीं होगी। हमें यह नहीं जमेगा। और फिर पढ़ाई करने का फल क्या है ? नौकरी ढूँढनी पड़ेगी, उसमें भी फिर परवशता महसूस होती थी कि मुझे सिर पर ऊपरी नहीं चाहिए।
इतना पावर फुल कॉमनसेन्स, वह पूर्व जन्म का ऐसा सब सामान लेकर आए थे कि कॉमन लोगों में वैसी सूझ-शक्ति देखने को ही नहीं मिलती।
उनके बड़े भाई मणि भाई के मित्र जो कि अध्यापक थे, उन्होंने अंबालाल को डाँट दिया कि 'अंबालाल, तुझे इतने साल हो गए फिर भी अंग्रेजी बोलना नहीं आया। तू ठीक से पढ़ाई नहीं करता है, तू अपनी जिंदगी खराब कर रहा है। मुझे तेरे बड़े भाई की सुननी पड़ेगी'। फिर
आखिर में अंबालाल ने मास्टर जी से साफ-साफ कह ही दिया कि, 'पंद्रह साल से पढ़ाई कर रहा हूँ, इस अंग्रेजी भाषा को पढ़ने में पंद्रह साल बीत गए। इतनी मेहनत अगर भगवान को खोजने में लगाई होती, तो अवश्य ही भगवान प्राप्त कर चुका होता'। अध्यापक भी समझ गए कि जिसे भगवान ढूँढने हैं उसे ऐसी पढ़ाई करना नहीं आएगा।
अंबालाल की विचार श्रेणी बहुत लंबी चलती थी कि इस फॉरेन की भाषा को सीखने में उनका आधा जीवन व्यर्थ जा रहा है। और इस जन्म में फिर से सीखना है। अगले जन्म में वापस भूल जाएँगे
और फिर से नई भाषा सीखनी होगी। एक ही चीज़ को लाखों जन्म तक पढ़ते रहे हैं! यहाँ पढ़ाई करते हैं और फिर वह आवृत हो जाता है। अज्ञान को पढ़ना नहीं होता, वह तो सहज भाव से आ ही जाता
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