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यतुविशति स्तोत्र
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बाह्यपदार्थ की अपेक्षा तत्त्वों में सत्ता व असत्ता अपेक्षाकृत रहती है | अभिप्राय यह है कि जिनमत में अनेकान्त सिद्धान्त अपेक्षाकृत वस्तु व स्वरूप निरूपण करता है | इसी से भाव-सत्ता और असत्ता एक ही तत्त्व में घटित हो जाती है | ७ ||
वस्तु स्वरूप जिनागम में सामान्य विशेषात्मक कहा है | सामान्य के दो भेद हैं- १ तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य ! इस प्रकार अनुवृत्त प्रत्यय का विशेष सामान्य और व्यावृत्तप्रत्यय का विषय विशेष या विभेद हैं । सामान्य से द्रव्य-और विशेष द्वारा पर्याय की प्रतीति होती है | इन उभय धर्मों के रहते ही पदार्थों में अर्थक्रिया संभव होती है । हे स्वामिन् ! जिन! आपके सिद्धान्त में ही पदार्थों में उभय धर्म प्रकट रूप प्रतिभाषित होते हैं । अनुवृत्त प्रत्यय द्वारा यह वस्तु "वही हैं वही हैं" "इस प्रकार अनुवृत्ति लक्षित होकर द्रव्यत्त्व की सिद्धि होती है । वे द्रव्य विशेष धर्म द्वारा भेदरूप"यह नहीं ऐसा नहीं" आदि व्यावृत्त प्रत्यय के विषय सिद्ध होते हैं । इन्हीं प्रत्ययों द्वारा समय भेद होने पर ऊर्ध्वता सामान्य सिद्ध होता है । भेद रूप होकर भी यह पदार्थ में एक रूपता-सिद्ध करता है । अर्थात् क्रमकरण विभूति अनुभूत होती है, यथा एक ही मृद पिण्ड में स्थास, कोष, कुशीलादि विभिन्न परिणमन देखे जाते हैं अथवा गौ, गौ यह सामान्य प्रत्यय है क्यों सम्पूर्ण गायों में गोत्यपना व्यापता है | परन्तु खण्डी-मुण्डी, काली-पीली आदि में गोत्व समान होने पर भी भेद दृष्टिगत होता है । एक भी अनेक रूप-क्रमिकता अनुभव में आती है । यह सब जिनशासन में ही उपलब्ध है || ८ ||
आपके सिद्धान्त में तत्त्व एक चिन्मात्र स्वरूप ही है । परन्तु वह तत्त्व क्रमिक और अक्रमिक स्वभाव को पीये हैं । द्विविधभाव के कारण ही वह सुरक्षित है । स्वभाव तर्क का विषय नहीं होता । अतः स्वयं सिद्ध तत्त्व तर्क रहित ही रहता है | समस्त संसार इसी प्रकार से उभय धर्मों से समन्वित है और स्वरस से परिपूर्ण विस्तार को प्राप्त है । हे जिन! इसके अतिरिक्त
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