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चतुर्विंशति स्तोत्र
जब निर्बाधरूप से निरंकुश सत्ता प्रतिभासित होती तब भला कारण कार्य का विलास किस प्रकार शभित हो ? अर्थात् कदाऽपि भेद रूपता विस्तृत नहीं हो सकती । इसी प्रकार अभवन शक्ति भवनरूप क्रिया की कारण नहीं हो सकती । क्योंकि वह अभवनता अभवन रूप ही क्रिया को करेगी । अर्थात् अपने अभाव स्वरूप का ही विस्तार करेगी ॥ १४ ।।
भवनरूप क्रिया अपने में कर्तादि कारक समूह को उत्पन्न नहीं कर सकती । क्योंकि वह तो अपने स्वरूप को ही करती हुयीं एक हो भवन स्वभाव से भरित होती है | चेतन रूप स्वाभाविक क्रिया चैतन्यभावोत्पादन ही कर सकती है, अन्य भावों को नहीं | क्योंकि अखण्ड एक स्वभाव में भेद रूपता प्रकट करना यह असत्-कलंक है । अर्थात् मिथ्या है | चैतन्य निर्मित भाव चेतना रूप ही होंगे, अन्य प्रकार नहीं ॥ १५ ।।
चैतन्य चिन्मय ज्योति रूप आत्म स्वरूप सनातन है । कर्ममल से मलिन थी । हे जिन ! आपने उस जहरूप कर्मकालिमा को नष्ट कर शुद्ध स्वरूप प्रकट कर लिया । यह अत्यन्त स्वच्छ, निर्मल अचल प्रभा-ज्ञान किरणें परापर की अपेक्षा से क्रमाक्रम रूप से प्रवर्त रही है । स्व-पर की अपेक्षा से औपचारिक क्रमाक्रम कल्पना है । अन्यथा सदा एक रूप ही भास्वर है और रहेगी ।। १६ ।।
यदि परम शुद्ध चैतन्य भी मेरे समान ही मिश्र रूप कला कलित हो तो, उसी रूप प्रकाशित होती हुयी रहती । तब तो वह स्वयं स्वभाव से विभाव रूप होने से कभी भी मोह मायांधकार को भी उत्पन्न करती | अतः शुद्धात्म ज्ञान कला से सम्पन्न आप सर्वथा भिन्न हो || १७ ।।
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