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चतुर्विंशति स्तोत्र
उभय नयों का स्थात्कार के साथ प्रयुक्त होने से ही व्यवस्था समीचीन सिद्ध
होती है ।। ८ ।।
यदि एकान्त से क्षण क्षय करने में अज्ञान का नाश नहीं बनेगा | अज्ञान नष्ट होता ही है । अतः कार्यकारण भाव मानने पर ही क्रमशः ऊपर-ऊपर उत्तरोत्तर अनादि रागाग्नि का नाश होने पर हे जिन यह अन्तिम चित् शक्ति का क्षण प्राप्त आप ही को हुआ हैं, इस प्रकार आप ही निर्वाण प्राप्त करने में समर्थ हुए हो यह व्यवस्था बन सकेगी । अतः क्षणस्थायी वस्तु तत्त्व स्वीकार करना ही होगा । इस प्रकार आपने एकान्तवादी बौद्ध सिद्धान्त सयुक्ति खण्डन किया है ॥ ९ ॥
यदि बौद्धसिद्धान्त के समान दीपनिर्वाण वत् मुक्ति का स्वरूप कल्पित किया जायेगा तो हे प्रभो ! आपका समस्त आगम ही शून्य हो जायेगा । परन्तु आगम में आपका सिद्धान्त इसे स्वीकार करने को साहसी उद्यमी नहीं होता । कारण दीप जिस प्रकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार मोक्ष होने पर आत्मतत्त्व का भी लोप मानना होगा । फिर ज्ञान, ध्यान, तप करने का उद्यम क्यों किया जायेगा ? परन्तु आचार्य श्री जिनदेव से प्रार्थना करते हैं कि प्रभो ! मेरे अन्तस्थल में तो साहस उत्तरोत्तर उग्ररूप से हो ही रहा है। अतः आपका सिद्धान्त ही समीचीन है ।। १०॥
नानारूप से कर्ता की क्रिया समन्ततः प्रवृत्त होती हुयी अर्थ क्रिया करने में समर्थ होती है । यह आगम सिद्ध है । आपका सिद्धान्त ही इस प्रकार अनेकान्स दृष्टि से प्रवर्त होने से एकान्तवाद का निषेध करता हुआ मुक्ति में ज्ञानधन स्वरूप आत्मा ही प्रतिभासित होता है | अतः मुक्तात्मा का अभाव नहीं होता अपितु संसार दशा का अभाव कर शुद्धावस्था में चिच्चमत्कार से घनीभूत हो शोभित होती है ॥ ११ ॥
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