________________
चतुर्विंशति स्तोत्र
सदृश, वाह्य भी ये सतत सर्व प्रकारेण, सर्व ओर से परमशुद्ध स्वरूप से ही आरोपित होते हैं अतः ये सभी अनन्तचतुष्टयरूप एकत्व को प्राप्त आपके सहजसंवेदन में ही लीन हुए रहते हैं ॥ २० ।।
वे बाह्याभ्यन्तर भेद विवक्षित होने से सभी धर्म आपमें एक साथ एक ही समय में व्याप्त रहते हैं । तो भी आप एकान्त से एक रूप नहीं हो क्योंकि भेदविवक्षा भी प्रकट प्रकाशित है । किस प्रकार? उत्तर यह है कि आप एक दुव्य है । दृल्य का लश्या या स्वरूप उत्पाद-व्ययात्मक भी है और ध्रौव्य रूप भी । अतः उत्पाद-व्ययों द्वारा विविध रूप होकर भी ध्रौव्यत्त्वपने से एक रूप भी हैं । क्योंकि त्रैकालिक अवस्था आपकी टंकोत्कीर्ण भी प्राप्त होती है । इस प्रकार परापर - उभयधर्मों का आप-में पूर्ण समावेश प्राप्त होता है ।। २१ ।।
त्रिकालवर्ती यह संसार अपने पूर्ण एक ही आकार स्वरूप से अपने ही तेज-स्वभाव में अवस्थित है । किन्तु, तो भी अन्य पदार्थों से भरित हो यह पुनः नाना रूप भी कहा है | अन्य परमत वालों ने इसे अन्य प्रकार भी निरूपित किया है अर्थात् इसे ब्रह्मा द्वारा रचित और महेश द्वारा नाश होने वाला कहा है । परन्तु आपने अकृत्रिम, नित्य पुरुषाकार सिद्ध किया है, जो युक्ति प्रमाण सिद्ध है । हे प्रभो ! आपने नित्यरूप से रचित और अन्य जीवादि पदार्थों खचित-होने से उनके उत्पाद-व्ययापेक्षा नश्वर भी कहा है । इसलिए उभय नय विवक्षा प्रवर्तन से द्वयरूपता भी घटित की है । ऊर्ध्व, अधो और मध्य लोक रूप रचना से अनेक रूप भी कहा है ।। २२ ।।
अनन्त दर्शन व अनन्तज्ञान के द्वारा निराबरण आपके उच्छ्वास औपचारिक है । वास्तव में ये ज्ञान दर्शन ही उच्छ्रास है क्योंकि इनके