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चतुर्विशति स्तोत्र ज्ञानाभा की किरणों से अशेष जड़-चेतन रूप संसार प्रकाशित होता है । अणुमात्र भी शेष नहीं रहता । तथाऽपि आप ज्ञान प्रकाशनिर्मित ज्ञानस्वरूप ही रहते हैं । जड़ कणिकामात्र भी आपके रूप नहीं हो सकती और न जड़ ही चेतन । ज्ञानालोक आपका एक मात्र स्व स्वरूप ही रहता है । असंख्यात प्रदेशों में से एक प्रदेशमात्र को भी सारा विश्व जड़ रूप नहीं कर सकता । अपूर्व एवं अलौकिक एक मात्र चित्कला ही चित् स्वभाव से द्योतित रहती है ।। १५ ।।
हे प्रभो! आपका सिद्धान्त अद्वितीय है । आपने प्रत्यक्ष स्वरूप को सूक्ष्म रूप से निरीक्षण कर बतलाया कि शुद्धाशुद्ध समस्त जीवादि पदाथों में अगुरु-लघु नामक गुण अपने स्वभाव षड्गुणी हानि-वृद्धि से षट् स्थानपतित रूप से 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यत्वं गुणत्व की सिद्धि करता है | इन हानि-वृद्धियों द्वारा समस्त विश्व एक साथ क्रम से परिणमित होते रहते हैं । अतः नैयायिकों का कूटस्थनित्य पना तत्क्षण नष्ट हो जाता है प्रत्यक्ष दोष दूषित होने से । इसी प्रकार कथंचित् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य पने प्रसिद्ध, सुसंगत लक्षण द्वारा बौद्धो का क्षणिकवाद सिद्धान्त भी समाप्त हो जाता है । क्योंकि क्षण नष्ट होने पर भी पदार्थ की स्थिति भी प्रत्यक्षहोती है । इसलिए चिद् शक्ति एकान्त से न तो नित्य है और तनिक भी क्षणिक है, किन्तु कथंचित् नित्य और कथंचित् क्षणिक है | यह नय दृष्टियों द्वारा गौण-मुख्यपने से सिद्ध है । अतः यही आपका सिद्धान्त यथार्थ है || १६ ।।
क्रम से परिणमित होने वाली परिणति से पदार्थों में क्रमरूप से परिणमन होता रहता है । यह वस्तु में भेद रूपता ग्राही व्यवहारनय या पर्यायार्थिक नय से सिद्ध है । इन पर्यायों का द्रव्य उनके साथ ही भार वहन करता है अर्थात् उनसे पृथक् नहीं होता । वह इस भार से अश्रान्त हुआ अपने स्वभाव से सम्पन्न शोभा को धारण करता है । इस प्रकार द्रव्यार्थिक नयापेक्षा पदार्थों में भेदोत्पादन नहीं होता । अतः भेद और अभेद दोनों ही भूतार्थ-यथार्थ-समीचीन धर्म एक साथ एक पदार्थ में